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जिसका परिणाम वेराग्य युक्तहोगा वही आत्मध्यान कर सकेगा क्योंकि ध्यान चित्तकी एकाग्रता को कहते हैं, आत्मरुचि व आत्मप्रेम ही चित्तको आत्मा में जोड़नेका सच्चा व अचूक उपाय है । जैसा श्री पूज्यपाद स्वामी समाधिशतक में कहते हैं
तत्त्वभावना
यवेवाहितबुद्धिः पुंसः भद्धा तत्रैव जायते । यत्रैव जायते या चित्तं तत्रैव लोयते ॥
भावार्थ - जिस पदार्थ को बुद्धिसे निर्णय कर लिया जायना उसी पदार्थ में श्रद्धा या रुचि जम जायगी तथा जिसमें रुचि हो जायगी उसीमें ही चित्त स्वयं लय होने लगता है व जमने लगता है । वास्तव में ध्यान के लिए यह बहुत आवश्यक है कि हमको आत्मद्रव्यका, बात्म के गुणों का तथा आत्माको पर्यायका वि खास हो । हमको यह दृढ़ विश्वास होना चाहिए कि जैसा पानी मिट्टी से जुदा निर्मल है वैसा मेरा आत्मा आठ कर्ममल, शरीर व रागादि भाव मलों से दूर, परमनिर्मल सिद्ध भगवान के समान मात्र एक ज्ञाता दृष्टा अमूर्तीक, परमवीतराग आनन्दमई पदार्थ है। मैं वास्तव में ऐसा ही हूं। इसी निश्चय सहित ज्ञान में चित्त को रोकना आत्मध्यान कहलाता है ।
साधारण उपाय ध्यान करनेका यह है कि हम एकांत स्थान में जहाँ कोलाहल न हो जाकर बैठजायें और थोड़ी देर निश्चिन्त हो जावें, सब कामों से फुरसत कर लेवें और अपने मात्माको निर्मल जलके समान देखें। जैसे घड़े में जल भरा होता है कैसे अपने शरीर में पुरुषाकार अपने आत्मा को देखें, चुपचाप देखते रहें मोर अपने मनको उच्च जात्मरूपी जम में जुबा दें।