Book Title: Tattvabhagana
Author(s): Mahavir Prasad Jain
Publisher: Bishambardas Mahavir Prasad Jain Saraf

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Page 340
________________ आरमध्यान का उपाय ___३१३ (१) पिंडस्थ ध्यान का स्वरूप पिंड 'शरीर को कहते हैं इसमें स्थित जो आत्मा उसको पिंडस्थ कहते है, उस आत्मा का करता डिस्थ ध्यान है। इसके लिए पाँच धारणायें बताई गई हैं-(१) पार्थिवी, (२) आग्नेयी, (३) श्वसना या वाय, (४) वाणी या जल, (५) तत्ररूपवती । इनको क्रम-२ से अभ्यास में लावें । (१) पार्थिवी धारणा का स्वरूप । इस मध्य लोक को क्षीर समुद्र समान निर्मल जल से भरा हुमा चिन्तवन करे, उसके बीच में जम्बूद्वीपके समान एक लाख योजन चौड़ा एक हजार पत्तों को रखने वाला ताए हुए सुवर्णके समान चमकता हुआ एक कमल विचारे। कमल के बीच में कणिका के समान सुवर्ण के पीले रंग का सुमेरु पर्वत चिन्तवन करे, उसके ऊपर पापड़क वन में पाण्डक शिला पर स्फटिकका सफेद सिंहासन विचारे । फिर यह सोचे कि उस सिंहासन पर मैं आसन लगाकर इसलिए बैठा हूं कि मैं अपने कमों को अला डालूं और आत्मा को पवित्र कर डालू । इतना चितवन वार-२ करना पाथिधी धारणा है। (२) आग्नेयो धारणा। फिर वहीं सुमेरु पर्वत के ऊपर बैठा हआ वह ध्यानी अपने नाभिके भीतर के स्थान में ऊपर हृदय की तरफको उठा हुआ व फैला हुआ सोलह पत्तों का कमल सफेद वर्ण का विचार करे और उसके हर एक पत्ते पर पीत रंग के सोलह स्वर लिखे हुए • सोचे । अ था इ ई उ ऊ ऋ ऋलम ए ऐ जो की अंमः ! इस

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