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आत्मध्यान का उपाय
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होता है । आसन को जीतने वाला योगी पवन धूप, पाला आदि से तथा पशुओं से अनेक तरह पीड़ित किये जाने पर भो खेद नहीं मानता है ।
जो पवन पर्वतों को उड़ा दे ऐसे पवन के चलने पर आसन से बैठा हुवा कभी नहीं डिगता है। शरीरको स्थिर रखने का बड़ा सुन्दर उपाय आसन का जीतना है।
सीधे बैठना, अपने दोनों चरणों को एक दूसरे की जाँच के ऊपर रखना, दोनों हाथ गोद में स्वन बाएं हाथ के ऊपन दाहता रखना, आंखें निश्चल रहें. उनकी सोध नाशिका के अन भाग पर हो। इसका मतलब यह नहीं है कि नाककी नोक को देखे परन्तु यदि कोई देखे तो मालूम पड़े कि दृष्टि नाकको सोध पर है, दोनों होठ न बहुत खुले हों न मिले हों मन बड़ा प्रसन्न हो, इस आसन को लौकिक में पद्मासन कहते हैं। जैसे उत्तर हिन्दुस्तान में दि० जैन मन्दिरों में प्रतिमा का आसन होता है । जहाँ एक पग जोधके नीचे व दाहना पग जांघके ऊपर रहे, शेष - सब बातें पद्मासन के समान हों उसको अर्द्ध पद्मासन कहते हैं । दक्षिण में इस आसन में मूर्तियां मिलती हैं। वहां इस ही को पत्यकासन कहते हैं । जैनबद्री के दौर्बलि जिनदास शास्त्री ने पद्मासन, परयंकासन व कायोत्सर्ग के श्लोक इस प्रकार लिखाए थे
समपादौ क्षितौ स्थित्वा चोर्ध्वजानुगतो करो । मला ऋजुमूर्तिः स्यात् दण्डासनमितीरितं ।
भावार्थ- जहां पैरों को बराबर जमीन पर जमाया जावे, आगेके (एक दूसरेसे चार अंगुल की दूरी रहे) अपने दोनों हाथ