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आत्मध्यान का उपाय
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(२) स्थान का विचार-ध्यान करने के लिए स्थान ऐसा होना चाहिए जहाँ क्षोभ न हो, कोलाहल न हो, दुष्ट लोगों का, वेश्याओं का, स्त्रियों का, नपुंसकों का आना जाना न हो । आस पाय गाना-बजाना न होता हो. गंध न आती हो, न बहुत गर्मी हो, न सरदी हो, न जानवरों का भय हो, न डांस मच्छरों का अधिक संचार हो, ऐसा योग्य व निराकुल स्थान ध्यान के लिए तलाश कर लेना चाहिए। ध्यान करते हुए विघ्न न हो ऐसा स्थान ढूंढना उचित है। मुख्य व उत्तम स्थान नीचे प्रकार हो सकते हैं-(१)सिद्धक्षत्र, (२)तीर्थंकरोंके पंचकल्याणको स्थान, (३) समुद्र का तट, (४) वन, (५) पर्वत का शिखर, (८) नदी तट, (७) नगर के बाहर कोट पर, (८) नदियों के संगम पर, (९) जलके मध्य द्वीप या भूमि पर, (१०) पुराना वन, (११) स्मशान के निकट, (१२) पर्वत की गुफा, (१३) जिन मन्दिर, (१४) शून्य घर, (१५) पृथ्वी की तलहटी, (१६) वृक्षों का समूह इत्यादि । जैसा कहा है
यत्र रागावयो वोषा अजस्त्रं यान्त लाघवम् ।
तनव वसतिः साध्वी ध्यानकाले विशेषतः ॥ भावार्ष-जिस स्थान में रागादि दोष शीघ्र हो दूर हो जावें वहीं बैठना उचित है-ध्यान के समय में तो विशेष करके वहीं बैठे।
(३) संथारे का विचार-निराकुल स्थान पर चटाई का आसन पाटा, पाषाण की शिला आदि पर या मात्र भूमि पर ही ध्यान करे। जैसा कहा है
बापट्टे शिलापट्टे भूमौ वा सिकतास्थले। समातिसिंहये धीरो विमासुस्थिरासनम् ॥