Book Title: Tattvabhagana
Author(s): Mahavir Prasad Jain
Publisher: Bishambardas Mahavir Prasad Jain Saraf

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Page 309
________________ २६८ ] तत्वभावना हलनचलन व क्रोधादि कबायका होना सदा ही पाया जाता है। इसलिए सर्व ही संसारी जीष अपनी हलन चलन क्रिया व कषाय के अनुसार थोड़े या बद्भुत कर्मों को बांधते रहते हैं। जो मात्मा मुक्ति की तरफ उद्योगी हो खाता है यह कम कर्मों को बांधता है। संवरतस्व-इस तत्त्वमें यह बताया गया है कि कोके बंधन से किस तरह बचा जावे। जिन-२ कारणोंसे कर्मोका बंध होता है उन-उन कारणों को छोड़ना संचर है, तब कर्मों का बंध रुक जायगा। मुख्य कारण कर्मों से बंध होनेके चार हैं मिथ्यात्व, अविरति, कषाय और योग। सच्चे तरवोंको न समझकर मिथ्या तत्वों पर श्रद्धान रखना मिथ्यात्व है। पराधीनता को अच्छा समझना और स्वाधीनता को न पहचानना मिथ्यात्व है । अतृप्तिकारी इंद्रियों के विषयों को अच्छा समझना और स्वाधीन आत्मीक सुख की रुचि न करना मिथ्यात्व है। हिसा, झूठ, चोरी, कुशील तथा तृष्णा में लबलीन रहना अविरति है। क्रोध, मान, माया, लोभ के भाव करना कषाय है । मन, वचन, काय को हिलाना योग है । यदि कोई मिथ्यात्व को त्यागकर सम्यक्त भाव पैदा कर लेगा, स्वाधीनताका सच्चा श्रद्धालु हो जायगा फिर मिथ्यात्वके दोषसे जो कर्म बंधते थे उनको रोककर उनका यह संवर कर देगा। जितना-२ पाँच हिंसादि पापोंको छोड़ता जायगा उतना-२ मविरति के द्वारा जो कर्म बंधते हैं उनसे बचता जायगा । साध अवस्थामें ये पांचों पाप बिलकुल छूट जाते हैं तब वहां इसके कार

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