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करता ही पड़ता है । अर्थ व काम पुरुषार्थ में रागद्वेष की उत्क टता होती ही है । इसलिए जो साधुकाका को छोड़कर मात्र आरम्भ व परिग्रहसे रहित होनेके कारण से पापके संचयसे बचते हैं उन्हीं को गृहको आकुलताएँ नहीं सताती हैं वे ही निराकुल हो आत्मध्यान करते व स्वाध्याय आदि में लीन रहते हैं। उनके हो परिणामोंकी बढ़ती हुई शुद्धता होती रहती है। इसलिए जो पूर्णपने आत्मकल्याण करना चाहे उनके लिए यही उचित है कि गृहवास से उदास हो उनकी सेवा करें। वास्तव में गृहादि परिग्रह का त्याग ही ध्यान की सिद्धि का साधन है ।
तस्वभावमा
श्री पद्मनंदि मुनि यतिधर्म में कहते हैंपरिग्रहवां शिवं यदि तदानलः शीतलरे । यवीन्द्रियसुखं तदिह कालकूटः सुधा ॥ स्थिरा यदि सतस्तदा स्थिरतरं तरिवाम्बरे । भवेsa रमणीयता यदि तबोखजालेपि च ।। ५६ ।। भावार्थ -- यदि परिग्रहधारी गृहस्थों को मोक्ष की प्राप्ति हो जावे तो मानना पड़ेगा कि अति ठण्डी हो जायगी । यवि इंद्रियोंके भोगोंसे सच्चा सुख होता हो तो मानना पड़ेगा कि काल कूट विष भी अमृत हो जायगा । यदि यह शरीर सदा स्थिर माना जायगा तो आकाशमें विलोको भी स्थिर मानना होगा यदि संसार में रमणीयता मानी जायगी तो इन्द्रजालके खेल में भी रमणीयता माननी पड़ेगी।
मूल श्लोकानुसार मालिनी छन्द
ज्ञानी भी गेही, कभी शुभ काम करता । कभी करता अशुभ, कभी वोऊ हि करता ॥ सब घर में रहना किस तरह मैस घोवे । इस लख शुचि मन घर त्याग घर आत्म जोवें ॥११८