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तस्वभावना
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गृहस्थमें रहना (कथम् ) किस तरह (मलानाम्) पापके मैलों को (शुद्धिकारी) शुद्ध करने वाला हो सकता है (इति) ऐसा समझ कर (विमलमनस्कः) निर्मल मन वाले महात्माओं के द्वारा (सः) यह गृहवास (त्रिधापि) मन, वचन, काय तीनों से ही त्यज्यते) छोड़ दिया जाता है।
मावार्थ-यहाँ आचार्यने यह स्पष्टपने दिखला दिया है कि कोई भी मानव गृहस्थकी कीचड़में फंसा हुआ कर्मों से मुक्त नहीं हो सकता है। यहाँ तक कि क्षायिक सम्बदष्टी व तीन ज्ञान के घारी तीर्थंकरको भी गहवास छोड़कर निर्यन्थ होना पड़ता है।
और बिलकुल निर्ममत्व होकर निजात्मानुभव का आनन्द लेना पड़ता है-शुद्ध वीतराग भावों में रमण करना पड़ता है तब कहीं शुक्लध्यान जगता है जो चारों घातिया कर्मों का नाशकर केवलज्ञान पैदा कर देता है । तब कोई सामान्य मनुष्य कितना भी ज्ञानी क्यों न हो गहवाससे कर्ममलसे मुक्त नहीं हो सकता। क्योंकि गृहस्थीको धर्म पुरुषार्थके सिवाय अर्थ और काम पुरुषार्थ की भी सिद्धि करनी पड़ती है। अर्थ पुरुषार्थ के लिए उनको धन कमाने के लिए बहुत आरम्भ व व्यवसाय करना पड़ता है जिसमें हिंसाजनित बहुत अधर्म करना पड़ता है। कर्म पुरुषार्थ में इन्द्रियों को तुप्त करने के लिए पांचों इन्द्रियोंके भोगों को भी भोगता है। इसमें भी पाप का हो संचय करता है कभी-२ व्यवहार धर्म के ऐसा भी काम करता है जिससे पुण्य व पाप दोनों बंधते हैं जैसे धर्म-स्थान को बनवाना, पूजा प्रतिष्ठा का आरम्भ कराना । जहाँ तक पापों का बिलकुल संवरन हो वहाँ तक कम को निर्जरा होना संभव नहीं है । गृहस्थको गृह संबंधी भाडम्बर में सम्यग्दृष्टी भी क्यों न हो कुछ पाप का संचय