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तस्वभावना
खार्दूलविक्रीडित छन्द जो हैं वक्ष स्वमक्ष रोधकर्ता, जन्मन मरण भय कर। संसति हरके मात्मलीन निर्मल निर्वाध सुख पछि धरें॥ वे चिन्ते निज आत्मरूप निश्चय, सर्वश सब देवता। मिर्मल मिश्य स्वभावरूप, रतिविन रत्नत्रयी एकता ॥१२०
उस्थापिका-आगे ग्रन्थकार अन्य समाप्त करके आशीर्वाद देते हैं
वृतविंशशतेनेति दुर्वता तत्वमावनाम् । सद्योमितगतेरिष्टा निर्वृतिः क्रियते करे॥२११॥ अषयाई-(इति) इस तरह (विशशतेन) एकसौ बीस (सः) श्लोकोंके द्वारा (सत्वभावनाम्) आत्मतत्वकी भावना को (कुवंता) करने वाला (सबः शीघ्र ही। (अमितिगतः इष्टा) सर्वज्ञ को प्रिय या अमितगति आचार्य को प्रिय ऐसी (निर्वृतिः) मुक्तिको (करे क्रियते) अपने हाथमें प्राप्त कर लेता है।
भावार्ष-श्री अमितगति महाराजने इन पहले कहे हुए १२० श्लोकोंसे इस तत्वभावना नामके ग्रन्थको रचा है इसको जो कोई बारम्बार अनुभव करेगा उसको अवश्य मुक्तिकी प्राप्ति होगी ऐसा आशीर्वाद आचार्य ने पाठकों को दिया है। तथा आचार्यने यह भी दिखलाया है कि प्राचीनकाल में जो सर्वज्ञ हो गए हैं उन्होंने भी इसी तत्व की भावनासे मुक्ति प्राप्तकी थी व में इसी हेतुसे तत्वकी भावना कर रहा हूँ। दोहा
विशति सौ श्लोक में, सस्व भावना पाठ । रचो अमितगति मूरिने, कर मावसे पाठ ।। लो पा मिज मुक्सिको, जिम पाई सर्वन । 'सीतल' कर्म सुकाटकें, रहे आत्म मर्मज्ञ ॥१२॥