Book Title: Tattvabhagana
Author(s): Mahavir Prasad Jain
Publisher: Bishambardas Mahavir Prasad Jain Saraf

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Page 294
________________ [ २०३ किया, मनोहर वस्त्रों से सज्जित किया, नाना प्रकार हाथो घोड़े पालकी विमानादि सवारियों पर आरूढ़ किया, हीरे जवा+ हरातसे जड़े हुए सुवर्ण के मकानों में बिठाया व सुलाया । इस तरह दोघं काल तक इसको सेवा की गई तो भी इस कृतघ्नी ने मरते समय साथ न दिया तब स्त्री, पुत्र, मित्र, भाई, बन्धु, सेना नौकर आदि अपना साथ कैसे दे सकते हैं ? ये तो बिलकुल ही अलग हैं। ऐसा जान ज्ञानी जीवको किसी से भी मोह नहीं करना चाहिए। आपही अपनेको अपने हित अहित का जिम्मेदार समशंकर सदा ही आत्महितमें लवलीन होना चाहिए। स्वामी अमितगति सुभाषितरत्नसंदोह में कहते हैं तत्त्वभावना एवं सर्वजगद्विलोक्य कलितं दुवोर्मात्मना । मिस्त्रिशेन समस्तस स्व समितिप्रध्वंसिना मृत्युमा ॥ सद्रत्नत्रयशात मार्गणगणं गृणन्ति परिछतये । सन्तः शांतधियो जिनेश्वरतपः साम्राज्यलक्ष्मोषिताः। ३१८. भावार्थ - इस तरह सर्व जगत को अतुल बोयंधारी, निर्दयो व सर्वप्राणियों को नाश करने वाले मरण द्वारा प्रसित देखकर यान्त परिणामी व जिनेन्द्रकथित तप की राज्यलक्ष्मीका बाश्वय करनेवाले सन्त जन उस मरण के नाशके लिए सम्यग्दर्शन सम्प ज्ञान व सम्यक् चारित्रमई रत्नत्रय धर्म तीक्ष्ण बाणों को ग्रहण करते हैं । मूलश्लोकानुसार मालिनी छन्द जिस तनकी सेवा, काल बहु खूब कीनो । सुखकर मंदिर रख, वस्त्र वाहन नवीनो । मोजन इष्टं वे साथ सो भो न जाये । फिर जग है कोजन, संग अपना निभावे ।। ११५। ,

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