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तत्त्वभावना
(अनवद्य) निर्दोष (शिवपदम् ) मोक्षपदको (याति) प्राप्त करता है (इसि) ऐसा समझफर (शिवपदकामैः) जो मोक्ष की इच्छा रखते हैं उनको (ते विशुद्धाः) उन विशुद्ध भावों को (विधेयाः) करना योग्य है।
मावार्थ-संसारो जीयोंके भाव तीन प्रकारके होते हैं एक शुद्ध, एक शुभ, एक अशुभ । जहां वीतरागभाव, समताभाव व शुद्ध आत्माकी तरफ सन्मुख भाव होता है वहां शुद्ध भाव होता है । यह भाव रागद्वेषके मैलसे शून्य हाता है इसलिए कमों की निर्जराका कारण है इसलिए वही वास्तबमें मोक्ष मार्ग है। यहीं सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान व सम्यक्चारित्र की एकता होती है । मोक्ष पुरुषार्थकी सिद्धिके लिए यही भाव ग्रहण करने योग्य है । अशुद्ध भाव वे कहलाते हैं जहां कषायों का उदय होकर कषायसहित भाव हों। कषायसहित भाव आत्मस्थ नहीं होते किन्तु परपदार्थ के सम्मुख होते हैं। इन्हीं मशुद्ध भावों के दो भेद हैं एक शुभ दूसरे अशुभ । जहाँ कषाय मंद होती है व भावोंमें प्रशमता, धर्मानुराग, भक्ति, सेवाधर्म, दयाभाव, परोपकार, सन्तोष, शील, सत्य वचनमें प्रेम, स्वार्थ त्याग आदि मंद कषायरूप भाव होते हैं उनको शुभ भाव कहते हैं। इन शुभ भावोंसे मुख्यतासे पुण्यकर्मों का बंध होता है। जहां कषाय तीव्र होती है वहाँ भावों में दुष्टभाव, अपकारके भाव, हिंसकभाव, असत्यपना, चोरीपना, कुशीलपना, असन्तोष, इन्द्रियविषय की लम्पटता, मायाचार, अति लोभ, व्यसनोंमें लीनता, परनिन्दा में प्रसन्नता, आदि भाव होते हैं उनको अशुभ भाव कहते हैं । इनसे पापकर्मों का हो बंध होता है। अशुभ मावोंके फलसे नरक व पशुगतिमें जाता है, शुभ भावोंसे मनुष्य व देवगतिमें जाता है। ये दोनों ही भाव जोवको संसारचक्रमें फंसाने वाले हैं, मोक्षके कारण नहीं