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विषयों की इच्छा छोड़कर आत्म सुख का ही उद्यम करना
चाहिए ।
स्वामी अमितगति सुभाषित रत्नसंदोह में कहते हैं
तत्वभावना
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सुखं प्राप्तुं गुद्धिर्यदि रामचं मुक्ति हितं सेवध्वं भो जिनपतिमतं पूतरक्षितम् ।। भजध्वं मा तृष्णां कतिपयदिनस्यापिनि धने । यतो नायं सन्तः कमपि मृतमन्वेति विभवः ।। ३३६॥
भावार्थ - यदि मुक्ति के स्थान में निर्मल सुख पाने की तेरी बुद्धि हो तो हे भाई! हितकारी व पवित्र जिनमत का सेवन कर। कुछ दिन साथ रहने वाले धनादि में तृष्णा न कर क्योंकि यह लक्ष्मी होती हुई भी किसी के साथ मरने पर नहीं जाती है ।
मूल वलोकानुसार शार्दूलविक्रीडित छन्द
जो शिव सुख बातार रत्नवयको भ्रमभावसे छोड़ता । भदायक अत्यन्त दुःखकारी इन्द्रिय विषय भोगता ॥ मैं मानूं सो अन्म मृत्यु क्षमकर पीयूषको त्यागता । जीवन कारण प्राण धातकर्ता हालाहलं पोवता ॥ १०१ ॥
उस्थानिका – आगे कहते हैं कि दुःख सुख में जो समता धारण करते हैं उनको नया कर्मबन्ध नहीं होता
हरिणी छन्द
भवति भविनः सौख्यं दुःखं पुराकृतकर्मणः । स्फुरति हृश्ये रागो द्वेषः कदाचन मे कथम || मनसि समतां विज्ञायेत्थं तयोर्विदधाति यः । क्षपयति सुधीः पूर्व पापं चिनोति न नूतनम् ||१०२ ॥