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तत्त्वभावना
उसकी ही प्राप्ति का उपाय करना चाहिए। श्री ज्ञानार्णव में शुभचन्द्र मुनि कहते हैं
रागी बध्नाति कर्माणि वीतरागो विमुख्यते । जीवो जिनोपदेशोऽयं समासाद्वंधमोक्षयोः ।। नित्यानन्दमयी साध्वी शाश्वती वात्मसंभवाम् । क्षणोति बीतसरंभो धीतरागः शिवश्रियम् ।।४।। भावार्थ- रामी जीव कर्मोको बांधता है जब कि बीतरागी कर्मों से छूटता है ऐसा संक्षेप से जिनेन्द्र भगवान का उपदेश बंध तथा मोक्ष के सम्बंधमें जानना चाहिए । जो आरम्भ का त्यागी वीतरागी साधु है वही नित्य आनन्दमयी, उसम, अविनाशी, मात्मा से हो उत्पन्न मोक्षलक्ष्मी को वरता है।
मूल श्लोकानुसार शार्दूलविक्रीडित छन्द जो चाहे निज दुष्ट कर्म हनना निर्मल तपस्या करे। परतो नीच कषाय माव रत हो निज कर्म बद्धन करे ।। जो चाहे तन दुःखदाय गरको हनना सु औषधि करे। पर त्यागे न अपथ्य खाद्य सो नर निज रोग वर्द्धन करे॥१०३
उत्थानिका-आगे कहते हैं कि जो साधु शरीर की रक्षा के लिए आहार मात्र लेते हुए लज्जा पाते हैं वे वस्त्रादिक परिग्रह को कैसे स्वीकार करेंगे ?
शार्दूलविक्रीडति छन्द सवत्नत्रयपोषणाय वपुषस्त्याज्यस्य रक्षापराः । व येशनमानकंगतमलं धर्माणिमितिभिः ।। लज्जते परिगृह्य मुक्तिविषये वद्धस्पहा निस्पहास्ते गझुम्ति परिग्रहं सधरा कि संयमध्वंसकम् ।।१०४