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तत्वभावना
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मात्र थोड़े दिन रहने वाली है, एकदम बुढ़ापा मा जावेगा तब युवानी का पता ही नहीं चलेगा। आज धनसम्पदा राज्यविभूति दिखलाई पड़ती है, यकायक विघ्न आ जाते हैं राज्य छूट जाता है, संपदाएं चली जाती हैं संपत्तिवान विपत्तियों में फंस जाता है, जिस पदार्थ से यह मोही जीव सुख मानता है वे हो पदार्थ नाशन वंत हूँ कि जाते हैं, ना इस को जीनको महान दुःखों का सामना करना पड़ जाता है । जगत का ऐसा क्षणभंगुर स्वभाव जानकर ज्ञानी जीवको निरन्तर आत्मकल्याण के सन्मुख रहना चाहिए।
श्री पद्मनंदि मुनि अनित्यपंचाशत् में कहते हैंराजापि क्षणमानतो विधिवशाबंकायते निश्चित । सर्वव्याधिविजितेपि तरणो आशु क्षयं गच्छति ॥ अन्यः कि किल सारतामुपगते श्रीजीविते । तयोः ।
संसारे स्मितिरोदशोति विदुषा क्वान्यन्न कार्यों मनः ॥४८ . भावार्थ-राजा भी क्षणमात्रमें निश्चयसे रंक हो जाता है। सर्व रोगोंसे रहित जवान शरीर भी शीघ्र नाशको प्राप्त हो जाता है लक्ष्मी और जीतन्य ये दोनों पदार्थ औरों की अपेक्षा जगतमें सार हैं । जब इन हो दोनोंकों ऐसी चंचल हालत हैं तब विद्वान पुरुष और किस पदार्थ में मद करें?
मूल श्लोकानुसार मालिनी छन्द संगति निज जनको, तापकारी बखानी। तन की तरुणाई, वृक्षपन माहि सानी ॥ आपर जा घेरे, मित्रवत् सम्पदा को ।
सुखप्रद जगवस्तू, वीखसो नहिं कदराको ॥११२।। उत्थानिका-आगे कहते हैं कि मरणसे कोई भी रक्षा करने बाला नहीं है