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तवमाधना
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लोकालोकावलोको गतनिखिलमलं लोकने यस्य बोधस्तं वेवं मुक्तिकामा भवभवनमिवे भावयम्त्वाप्तमन ॥६४७
भावार्थ-जिसका ज्ञान तीन लोकके भीतर पाए जाने वाले भाव तथा अभाव स्वरूप, अनेकरूप व एकरूप, भेदरूप व अभेद रूप द्रव्यों के और पर्यायों के स्वरूप को देखते हुए लोक और अलोक दोनों को देखने वाला है उस सर्व दोष रहित अरहंत देव को यहां संसार- घरके नाश करने के लिए मोक्ष के चाहने वाले सेवन करहु ।
मूल श्लोकानुसार शार्दूलविक्रीडित छन्द जो भवसागर दुःखवाय क्षण में भदि जीव को पारकर, देते मोक्ष पवित्र नित्य लक्ष्मो जो चाहते ज्ञानघर । धे हैं मी सगाहा अम्गादार नानसे, जो वेते नहि अन्य कोय शिक्षा नहि मो अचम्भाविसे ॥१०६।
उत्थानिका-आगे कहते हैं कि इस संसार में कोई वस्तु सुखदायक नहीं है
ध्रुवापायः कायः परिमवमवाः सर्वविभवाः । समानार्या भार्याः स्वजनतनया: कायविनयाः ।। असारे संसारे विगतशरणे वत्तमरणे । दुराराधेगाधे किमपि सुखदं नापरपदं ॥१०७11
अन्वयार्य-(कायः) यह शरीर(ध्रुवापाय:)निश्चय से नाश होने वाला है (सर्व विभवा:)सर्व सम्पत्तियें (परिभयभवाः) वियोग के सम्मुख हैं (भार्याः) स्त्रिये (सदा अनार्या) सदा ही सुखकारी व हितकारी व सभ्यतासे व्यवहार करने वाली नहीं हैं (स्वजनतनयाः) अपने कुटुम्बी या पुत्र (कार्यविनयाः) अपने मतलब से विनय करने वाले (दत्तमरणे)मरणको देने वाले विगतशरणे).