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तत्त्वभावना
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मदान्धस्त्रोनेत्रप्रकृतिचपलाः सर्वभाविना - महो कष्टं मस्तदपि विषयान्सेवितुमनाः ॥ ३२९ ॥
भावार्थ- सर्व संसारी जीवों के लिए ये रूप, स्थान, कुटुम्बी जन, पुत्र, पदार्थ, स्त्री, पुत्री, लक्ष्मी, यश, चमक, राग, बुद्धि, स्नेह तथा यं सब मद से उन्मत्त स्त्री के नेत्र के स्वभाव के समान चंचल हैं । अहो ! बड़े कष्ट की बात है कि ऐसा जान करके भो यह मानव इंद्रियों के विषयों को सेवन करता है । मूल श्लोकानुसार शार्दूलविक्रीडित छन्द
נ.
है यह तन जु विनाशनीक लक्ष्मी है सर्व जग संखला । मार्या नित्य कुमोहकार स्वजना अर पुत्र स्वास्थलमा || है संसार असार शर्ण मह को अब मृत्यु आ जात है । दुस्सर दुर्गम लोक माहि वस्तू सुख करम विखलात है ॥१०७॥ उत्थानिका- आगे कहते हैं कि मरण से कोई बच नहीं
सकता ।
मालिनी वृत्तम् असुरसुरविभूनां हंति कालः श्रियं यो । भवति न मनुजानां विघ्नतस्तस्य खथः । 'विचलयति गिरोणाँ चलिकां यः समीरो । गृहशिखरपताका कंपले कि न तेन ॥ १०८॥
अन्वयार्थ - ( यः कालः) जो मरणरूपी काल (असुरसुरविभूनां) भवनवासी, व्यंतर व ज्योतिषी तथा स्वर्गवासी देवों के स्वामियों की (श्रेयं) लक्ष्मीको ( हंति ) नाश कर देता है ( तस्य ) उस कालको ( मनुजानां ) मनुष्यों की सम्पत्तिको ( विघ्नतः ) हरु लेने में (खेदः) खेद ( न भवति) नहीं हो सकता है ( यः समीर: )