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तत्त्यभावना
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चुके, प्रहृा नहीं करते हैं । वे साधु अपनी प्रतिज्ञा में अटल रहते हुए रात्रि दिन तत्वज्ञान की भावना भाते हैं । और पूर्ण वीत रागता के लाभ के लिए उद्यम करते रहते हैं। तात्पर्य यह है कि परिग्रहका त्याग ही उत्तम ध्यानका अधिक है इस बात को कभी भूलना न चाहिए।
ज्ञानार्णव में श्री शुभचन्द्र मुनि कहते हैंरागाविविजयः सत्यं क्षमा शौचं वितृष्णता ।
मुनेः प्रच्याव्यते ननं संमोहितात्मनः ||१४||
भावार्थ - जिस मुनि का वित्त परिग्रहों से मोहित हो जाता है उसके रागादि का जीतना, सत्य, क्षमा, शौच, और तृष्णा रहितपना आदि गुण नष्ट हो जाते हैं ।
परिग्रह को मूर्छा का निमित्त कारण जानकर साधुजन उसे कभी भी ग्रहण नहीं करते हैं ।
मूल श्लोकानुसार शार्दूलविक्रीडित छन्द
जो साधू नित मोक्ष उद्यम करें संसार नहि चाहते । रत्नत्रय वश हेतु हे तनको सुचि मुक्ति दे राखते ॥ धर्मो याता दत्त खाद्य लेते मनमाहि लज्जा घरें । सो पतिगण संयम विराधकर्ता परिग्रह न अंगी करें ॥
उत्थामिका- आगे कहते हैं कि यथार्थ तत्व के ज्ञाता जगत में दुर्लभ हैं
ये लोकोत्तरतां च दर्शनपरां दूत विमुक्तिधिये । रोचन्ते जिनमारतीमनुपमां जल्पति शृण्वन्ति च ॥