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क्रोधादिक कषायोंमें लीन होता हुआ ( रभसा) शीघ्र ही ( वृद्धि नयति) कर्मोंको और अधिक बढ़ा लेता है जैसे (बुद्धजनमतः ) बुद्धिमानोंके द्वारा सम्मत ( भेषज्यं: ) औषधियोंसे (कदाचित विग्रहम् ) शरीरको दुःखदाई ( गदं ) रोगको ( निसूदितुम ) नाश करने के लिए ( उद्यतः) उद्यमी पुरुष ( अपध्यात्) अपथ्य सेवन करने से ( तं) उस रोगको ( किं न ) क्या नहीं ( प्रथयति ) बढ़ा लेता है ।
तस्वभावना
भावार्थ - यहां पर भी आचार्यने यहाँ दिखलाया है कि कर्मों के नाश करने की मुख्य औषधि वीतरागभाव है। जितना भी बाहरी व अंतरंग तप किया जाता है उस सबका हेतु कषायोंका घटाव व वीतरागभावका झलकाव है। जो कोई तपस्वी होकर अनेक प्रकार शरीरको कष्टकारी पकी करें परन्तु कषायक दमन न करे, शांत भाव को न प्राप्त करे तो उसके कर्मों की निर्जश न होगी । उल्टा और अधिक कर्मोंका बंध हो जायगा । क्योंकि बंधका कारण कषाय परिणामों में विद्यमान है। यहां पर दृष्टांत देते हैं कि जैसे किसीको बहुत कठिन रोग हो रहा है और वह अच्छे प्रवीण वैद्यकी बताई हुई औषधि ले रहा है परंतु रोग वृद्धि के कारण जो अपथ्य या बद परहेजी है उसको नहीं त्याग रहा है तो वह कभी भी रोग से मुक्त न होगा - उल्टा रोग को बढ़ाएगा। प्रयोजन यह है कि वीतरागभावों की प्राप्तिका सदा उद्यम करना चाहिए तथा ध्यान हो मुख्य तप है वह आत्मानुभवके समय पैदा होता है, जहां अवश्य वीतरागता रहती है । सम्यग्दृष्टी का तप हो सच्चा तप है। मिध्यात्व सहित महान तप करता हुआ भी संसारका मार्गी है - मोक्षमार्गी नहीं है । मुमुक्षू जीव को इसलिए श्रीतराग भाव पर ही लक्ष्य रखके