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अन्वयार्थ -- ( श्वभ्राणां ) नरकगतिवासी प्राणियों को (अविसह्यम् ) न सहने योग्य (दुर्जन्यम्) वचनों से न कहने योग्य (अन्योन्यजम् ) परस्पर किया हबा (अंतरहितं) अनंत बार ( परं दुःखं ) उत्कृष्ट दुःख होता है ( तिरश्चा) पशु गति में रहने वाले प्राणियोंको (दाहृच्छेदविभेदना दिज नितम् ) अग्नि में डालने का छेदे जानेका, भेदे जानेका, भूख प्यास आदिके द्वारा होने वाला कष्ट होता है। (नृणां ) मानवों को (रोग वियोग जन्ममरणं ) रोग, वियोग तथा जन्म मरण आदिका दुःख रहा करता है वासी देवोंको (मानसं ) मन संबंधी बाधा रहती है (इति) इस प्रकार ( विश्वं ) इस गति को ( कष्टकलितं ) दु:खोंसे भरा हुआ (सदा ) हमेशा ( वीक्ष्य ) देखकर ( मुक्तये) मुक्त होने के लिए ( मतिः) अपनी बुद्धि (कार्या) करनी योग्य है ।
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तस्वभावना
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भावार्थ - इस श्लोक से आचार्य ने दिखला दिया है कि चारों ही गतियों में इस जीवको कहीं संतोष व सुख शांति नहीं मिलती है। सर्व ही में शारीरिक व मानसिक दुःख कर्म व अधिक पायें जाते हैं । हम यदि नरकगतिको लेवें तो जिनवाणी बताती है कि वहाँ के कष्ट अपार हैं। भूमि दुर्गंधमय हवा शरीर भेदने वाली, वृक्षोंके पत्ते तलवारकी धारके समान, पानी खारा, शरीर रोगों से भरा व भयानक, परस्पर एक दूसरेको करते हैं वहां के प्राणियों की कभी भूख प्यास मिटती नहीं । क्रोध की अग्नि में जलते रहते हैं, दीर्घकाल रो-रोकर बड़े भारो कष्टसे अपने दिन पूरे करते हैं। पशु गति के दुःख तो हमारी आँखों के सामने हो हैं । एकेन्द्रिय पृथ्वीकायिक, जलकायिक,
मारते, सताते व दुखी
कायिक, वायुकायिक, वनस्पतिकायिक प्राणियोंके कष्टों का