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तत्वभावना
न प्राप्यते वचन फलमाः कौनच रौप्यमाणेविज्ञायेत्थं कुशलमतयः कुर्वते स्वार्थमेव ॥४॥
अन्वयार्थ-(यः) जो कोई (बाह्यार्थ) बाहरी धन, राज्य, स्वर्ग आदि के हेतुसे (तपसि) तप करने में (यतते) उद्यम करता है (असो) बह (वाह्यम् ) बाहरीही पदार्थ को (मापद्यते) पाता है। (तु) परन्तु) (यः) जो (आत्मार्थ) आत्माको सिद्धि के लिए तप करता है (स:) वह (लघ) शीन (पूतम्) पवित्र (आत्मानं)
आत्मा को (एव) ही (लभते) पाता है। (कोद्रव रोप्यमाणे) कोदों यदि बोए जावें तो उनसे (क्वचन) कभी भी (कलमाः) चावल (न प्राप्यते) नहीं मिल सकते है इत्थं) ऐन : (विज्ञाप जानकर (कुशलमतयः)निपुण बुद्धि वाले (स्वार्थम्)अपने आत्मा के कार्य को (एव) हो (कुर्वते) कहते हैं।
भावार्थ-आचार्यने बताया है कि तप करने में अनेक गुण है, जो इस भाव से तप करते हैं कि हमें पुण्यबंध हो व उस पुण्य से हम बाहरी सम्पत्ति, राज्यधन, स्वर्ग आदि प्राप्त करें तो उनका भाव पवित्र व शुद्ध नहीं होता है। उनके भावों में शुभ भावमात्र होते हैं जिनसे वे पुण्य बांधकर बाहरी पदार्थ प्राप्त कर लेते हैं, परन्तु अपना निर्मल अविनाशी मोक्षपद है वह उनको कभी भी प्राप्त नहीं हो सकता। इसलिए जो कोई बुद्धिमान आत्मबुद्धि के हेतुको मनमें रखकर शुद्धोपयोगी प्राप्ति के लिए आत्मध्यानादि तप करते हैं उनको अवश्य शुद्ध आत्माका लाभ होता है, वे अवश्य मुक्त हो जाते हैं । जैसा बीज बोया जायगा वैसा फल होगा। शुभोपयोग से पुण्य बंध होता है तब शुद्धोपयोग से को का नाश होता है । यदि कोई कोदों बोवे और चाहे कि चावल पैदा हों तो कभी भी पावल नहीं मिल सकते-कोदों से कोदों