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ऐसी दशा में कौन सा ऐसा पदार्थ इस जगत में है जो प्राणी को सुख का कारण हो ? वास्तव में क्षणभंगुर चेतन व अचेतन पदार्थों के साथ रहने का जब भरोसा नहीं है तब इनके निमित्त से सुखी होना मानना मात्र भ्रम है । इस संसार के भयानक वन में जिस २ शरीर का व बाहरी पदार्थ का आश्रय लिया जावे वे सब नाशवन्त प्रगट होते हैं तब उसे कैसे हो सकता है ? इसलिए आचार्य शिक्षा देते हैं कि हे आत्मन् ! तू अपनीभूल को छोड़ और अपना मोह सर्वे ही बाहरी पदार्थों से हटा, माच एक अपने ही आत्मा के शुद्ध स्वरूप में लीन हो जा, इसी से तेरा भला होगा ।
तस्थभावना
अमितगति महाराज सुभाषित रत्नसंदोह में कहते हैंश्रियोपाया प्रातः स्तणजलचरं जीवितमिदं । मनश्वितं स्त्रीणां भुजगकूटिलं कामजसुखम् ॥ क्षणव्वंसो कायः प्रकृतितरले यौवनद्यने । इति ज्ञात्वा सन्तः स्थिरतरधियः श्रेयसि रताः ॥३३२|| भाषार्थ - राज्यपादादि लक्ष्मी सब नाशवंत हैं, यह जीवन घास पर पड़े हुए बोस की बूंद के समान चंचल हैं, स्त्रियोंके मन की गति बड़ी विचित्र है । काम भोग का सुख साँप की चाल के समान बड़ा टेड़ा व सदा एक सा रहने वाला नहीं है, यह शरीय क्षण भर में नाशवन्त है तथा युवानी व धन स्वभावसे ही चंचल है ऐसा जानकर अति स्थिर बुद्धि के धारी संत पुरुष इन पदार्थों में रति न करके अपने आत्म कल्याण में लग जाते हैं । मूलश्लोकानुसार शार्दूलविक्रीडित छन्द
महिला संग निवास पापकारी सुत बंधू आपसि कर है यह तन रोगावि कष्टकारी धन सर्व थिरता बिगर ।