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तत्त्वभावना
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संसाररूपी वन के नाश करने को समर्थं ऐसे (जैनं तपः ) जैन के तप को (कुर्वते) साधते हैं ( तेषां पुण्यात्मनां योगिनां ) उन्हीं पवित्र आत्मा योगियों का (च) ही (जन्म) जन्म-जन्म ( च जीवितं ) और जीवन ( सफलं ) सफल है ।
भावार्थ
अवाने
प योगियों की महिमा कही है, वास्तव में यथार्थ बात यही है कि बिना किसी माया, मिथ्या या निदान शल्य के एक मुमुक्षु को अपनी बुद्धि निर्मल करके शास्त्रका अभ्यास बोर गुरुका सेवन तथा स्वानुभव पूर्ण युक्ति के बलसे यह भले प्रकार निश्चय कर लेना चाहिए कि मिथ्यादर्शन, मिथ्याज्ञान तथा मिथ्याचारित्र तो संसार के कारण हैं तथा सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान तथा सम्यक् चारित्र मुक्ति के कारण हैं। फिर उसे उचित है कि संसार के कारणों को मन, वचन, काय से भले प्रकार छोड़ दे और रुचिपूर्वक सम्यग्दर्शन सम्यग्ज्ञान व सम्यग्वारित्रको ग्रहण करे । निश्चय से इन तीनों की एकतामें जो भाव पैदा होता है उसको स्वानुभव कहते हैं । इस स्वानुभव को करते हुए जो जिनेन्द्र भगवान के द्वारा कहे हुए बारह प्रकार के तपो को या मुख्यता से धर्मध्यान तथा शुक्लध्यान को ध्याते हैं वे ही उन कर्मों को निर्जरा करने को समर्थ हो सकते हैं जो कर्म इस जीवको संसार के भयानक वन से भ्रमण करने वाले हैं, ऐसे ही पवित्र महात्मा योगी इस भवसागर को पार करके सिद्धवास को शीघ्र पा लेते हैं । ऐसे ही योगियों का जन्म भी सफल है तथा जीना भी सफल है। सच्चे धर्म को नौकर जिनको नहीं मिलती है वे भव समुद्र में भटक भटककर अपना जीवन पूरा करते हैं। रत्नत्रयमई जहाज का मिलना वास्तव में दुर्लभ है, जिनको मिल जाये उनको प्रमाद