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स्वामी अमितगति सुभाषितरत्नसंदोह में कहते हैं-पारसारसमुक्तास्तपः । विहाय ते हस्तगतामृतं स्फुटं पिबन्ति मूढाः सुख लिप्सया विषं ॥
१८६मा
तस्वभावना
भावार्थ- जो इन्द्रियों के विषयों के पीछे आकुल व्याकुल रहते हैं वे इस अपार संसार समुद्र से पार उतारने वाले तपकी साधन नहीं करते हैं वे मूर्ख मानो हाथ में आए हुए अमृत को छोड़कर सुख की इच्छा से विष को पीते हैं ।
मूल श्लोकानुसार शार्दूलविक्रीडित छन्द श्री तप के काज चक्र छोड़े आश्चर्य कुछ है नहीं । अनुपम संपत् नित्य तप ज्जु देवे साधुजनों को सहो ॥ जो तप तज के विषय भोग करते आश्चर्य भारी रहा। इन लोगों से दुःख घोर सहते भववधि भयानक महा ||८|| उत्थानिका— आगे आचार्य कहते हैं कि आत्मा के सिवाय सर्व बाहरी पदार्थ त्यागने योग्य हैं
शिखरिणी छन्द
रामाः पापाविरामास्तनयपरिजना निर्मिता वनर्था । गावं व्याध्यादिपात्रं जितपथनजवा मूढ लक्ष्मीरशेषा ॥ कि रे बुटं त्वयाश्मन् भवगहनवते भ्राम्यता सौरूप हेतुन एवं स्वार्थनिष्ठो भवसि म सततं वाह्यमध्यस्य सवं ॥ ६८ ॥
अन्वयार्थ - ( मूढ़) रे मूर्ख ! ( रामाः ) स्त्रियें ( पापाविरामः ) पापों की खान हैं अर्थात पापों को उत्पन्न कराने वाली हैं ( तनय+ परिजनाः ) पुत्र व अन्य परिवार (बहु अनर्थाः निमिताः ) अनेका अनयों के कारण हैं ( गात्रं ) यह शरीर ( व्याध्यादिपात्र) रोग आदि कष्टों का ठिकाना है (अशेष लक्ष्मीः ) सम्पूर्ण लक्ष्मी