________________
४८]
को उच्च और उत्तम तथा नित्य पदार्थके लिए नीच व जघन्य व अनित्य पदार्थको अवश्य त्याग देना चाहिए। चक्रवर्ती राज्य करते हैं विषय भोगते हैं परन्तु उनको विषयभोगों से कभी तृप्ति नहीं होती है । विषयभोग सुख ही ऐसा है कि जो तृष्णा को शान्त करने के स्थान में और अधिक बढ़ा देता है। इसलिए वे चक्रवर्ती अपने शास्त्रज्ञान से इस बात को भले प्रकार निश्चय करते हैं कि अविनाशी व अनुपम सुख अपने आत्मा ही पास है और वह सुख आत्मध्यानसे ही हासिल हो सकता है, निराकुलता से उस आत्मध्यान को साधु महात्मा ही कर सकते हैं। इस अनुपम मोक्ष सुख के लिए तीर्थंकरादि बड़े-बड़े राजा राज्यपाट छोड़कर साधु हो गए और साधु होकर तप साध मोक्षको पहुंच गये। ऐसा जान चक्रवर्ती भी चक्रादि सम्पदा को छोड़कर तप धारण कर लेते हैं। आचार्य कहते हैं कि इसमें कोई आश्चर्यको बात नहीं है क्योंकि जो कोई वह काम करे जिसे सर्व बुद्धिमान लोग करते आ रहे हैं तथा जो परमोत्तम फल का कारण है तो इसमें सज्जनों को कोई अचम्भा नहीं दिखता है, यह तो उसने अपना कर्तव्य पालन किया। परन्तु आश्चर्य तो इस बात में है कि जो कोई उत्तम तप करने के लिए साधुपद की क्रियाओं को धारण करे और फिर उस साधुपद को क्षणभंगुर अतृप्तिकारी विषयभोगों के लिए छोड़ दे यह बड़े आश्चर्य की बात है । क्योंकि जिसे रत्न मिल रहे हों वह रत्न छोड़कर कांच के टुकड़ों को घटोर ले तो वह मूर्ख ही माना जायगा और उसका यह कृत्य विद्वान सज्जनों के दिल में आश्चर्यकारी ही होगा । प्रयोजन यह है कि जो इंद्रिय के विषय जीवको भयानक भव वन में घुमाते हैं। और घोरानुघोर कष्ट देते हैं उनही विषयों के पीछे अपने तप को छोड़ना उचित नहीं है। यह नितान्त पूर्बता है।
तरवधपणा