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तस्वभावना
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मूल श्लोकानुसार शार्दूलविक्रीडित छन्द
जब तक मनमें बाह्यवस्तु इच्छा थिररूप वर्तन करें। सब तक दुखकर कर्म जाल कैसे यह जीव चूरन करें ।। पृथ्वीतल में जलपना जु जब तक नहि वृक्ष हैं सूखते । सूरज ताप निरोध कर सुशाखा उपशाखा में लूंबते ॥ ६६ ॥ उत्थानिका- आगे कहते हैं कि जोंके लिए तप को छोड़ देते हैं वे निन्दा के योग्य है
चको चक्रमपाकरोति तपसे यत्तन्न चित्रं सताम् । सूरीणां यदनश्वरीमनुपमां इसे तपः संपदम् ॥ तचित्रं परमं यत्र विषयं गृह्णाति हित्वा तपो । बत्तेऽसौ यदनेकखमबरे भीमे भवाम्मोनिधौ ॥ ६७॥ अम्बार्थ · - ( यत् ) जो (चक्री) चक्रवर्ती (तपसे) उस तपके लिए (यत्) जो (तपः ) तप (सूरीणां ) साधुओं को ( अनश्वरी ) अविनाशी (अनुपमां) और उपमा रहित ( संपदम् ) मोक्षलक्ष्मी को (दत्ते ) देता है (च) चक्रवर्ती के राज्य को ( अपाकरोति ) छोड़ देते हैं (तत्) सो ( सताम् ) सज्जनों के लिए (चित्तं ) आश्चर्यकारी (न) नहीं है । ( यत् ) जो ( अत्र ) इस संसार में (असो) कोई साधु ( तपः ) तप को (हित्वा) छोड़ कर (विषय) उस इंद्रिय के विषयभोग को (गृह्णाति ) ग्रहण करता है (यत्) जो विषयभोग (अवरेभोमे भवाम्भोनिधी ) इस महान भयानक संसार समुद्र में ( अनेक दुःखम् ) अनेक दुःखों को (दत्तं) देने वाला है (तत्) यह बात ( परमं चित्र ) बहुत ही आश्चर्यकारी है।
भावार्थ – यहाँ पर बाचार्य ने बताया है कि बुद्धिमान प्राणी