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तस्वभावला
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(वर्तते) पाया जाता है (तावत्) तबतक (दुःखदानकुशलः) दुख । देने में कुशल ऐसा जो (कर्मप्रपंचः) कर्मों का जाल सो (कथ) किस तरह (नाति नाश हो सकता है ? विसघातलस्य) जमीन के तलेके (आद्रे मीलेपनें के होते हुए(भृज्जतापनिरोघनपरा:) अत्यन्त सूर्य के आताप को रोकनेवाले (शाखोपशाखान्विताः) शाखा तथा उपशाखा से पूर्ण (सजटा:) तथा जटावाले (पादपाः) वृक्ष (किंशुष्यंति) कैसे सूख सकते हैं ? अर्थात् नहीं सूख सकते हैं।
भावार्थ-कर्मरूपी वृक्ष अनेक दु:ख रूपी कांटोंसे भरा हुआ है इसकी पुष्टि रागरूपी जलसे होती रहती है । जहाँ तक राग का जल सिंचन होता रहता है वहांतक यह कर्मरूपी वृक्ष बढ़ता जाता है । यदि कोई चाहे कि इस कमरूपी वृक्ष की बाढ़ न हो किन्तु यह सूखकर गिरपड़े तो उपाय यही है कि इसमें रायरूपी -- जल का सिंचन बन्द किया जाये तब यह शीघ्र ही गिर जावेगा। एक वन में अनेक वृक्षों के समूह हैं जिनकी बड़ी-बड़ी शाखाएं हैं व जिन पर जटाएं हैं ये वृक्ष बराबर बढ़ते रहते हैं, जब तक इनकी जड़ों में जमीन की तरी मिलती रहती है। जब जमीन की तरी का पोषण नहीं मिलता है तब वे बड़े-२ वक्षभी सूखकर गिर जाते हैं।
वास्तव में कर्मों के नाशका उपाय वीतराग विज्ञानमई जिन धर्म है । अविरत सम्पग्दष्टोको इस जिनधर्मका लाभ हो जाता है तब उसके कर्मवृक्ष की जड़ बिलकुल ढोली पड़ जाती है, अनंतानुबंधो कषायका उदय नहीं रहता है। ये ही कषाय कर्मकी जड़ को मजबूत करने वाली हैं। मात्र अप्रत्याख्यानावरण प्रत्याख्यामावरण व संज्वलम कपायका उदय संबन्धी राग है सो कर्मवृक्ष में