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तस्वभावना
[ २१६ बाहरी पदार्थों को ही अपना समझते हैं---
कातासम्मशरीरजप्रमतयो ये सर्वपाप्यात्मनो। मिन्नाः कर्ममवाः समीरणमाला माषा बहि धिनः ॥ तैः संपत्तिमिहात्मनो गतधियो जानंति ये शर्मदा । स्वं संकल्पवशेन ये विवधते नाकोशलक्ष्मी स्फुटम् ॥५॥
अन्वयार्थ-(ये) जो (कांतासद्मशरीरजप्रभृतयः) ये स्त्री, मकान, पुत्र आदि पर्याय (सर्वथापि) सर्व प्रकारसे ही (आत्मनः भिन्नः) अपने आत्मासे भिन्न हैं (बहिर्भाविनः भावः) बाहर रहने वाले पदार्थ हैं (समीरणचलाः) तथा पवनके समान चंचल हैंटिकने वाले नहीं है (कर्मभवाः) सो सब कर्मोंके उदयसे होनेवाले हैं। (इह) इस जगत में (ये) जो (मतधियः) बुद्धि रहित प्राणी (तैः) इन ही पदार्थों से (आत्मन:) अपनेको (शर्मदो) सुख देने याली (संपत्ति) संपत्ति (जाति) जानते हैं (ते) वे (स्फुटम्) प्रगटपने (संकल्पवशेन) अपने मनके संकल्प से ही (स्वं) अपने पास (नाकीशलक्ष्मों) स्वर्गकी लक्ष्मीको मानो (विदधते) प्राप्त करते रहते हैं।
भावार्थ-यहाँ पर यह दिखलाया गया है कि जो मूर्ख क्षणभंगुर पदार्थोके सम्बन्ध होने पर उनको अपनी सम्पत्ति मान लेते हैं वे अंतमें पछताते हैं और शोकमें ग्रसित होते हैं, जगत में स्त्री पुत्र, मित्र, बन्धुजन आदि चेतन पदार्थ तथा धन, धान्य, राज्य, ग्रह आदि अचेतन पदार्थ जब किसीको मिलते हैं तब कुछ पुण्यकर्मका उदय होता है तब मिलते हैं और जगत के पुण्यकर्म का सम्बन्ध रहता है तब तकही उनका सम्बन्ध रहता है, पुण्यके क्षय होने पर उनका सम्बन्ध इतनी जल्दी छूट जाता है जैसे पवन