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तत्त्भावना
तत्य मेरा कभी भी नहीं है। मेरे आत्मस्वरूपके सिवाय जो क्रोध आदि कार्य हैं वे सब कर्मों के द्वारा पैदा हुए हैं। सैकड़ों शास्त्रों को सुनकर मेरे मनमें यही तत्व विद्यमान है।
मूल श्लोकानुसार शार्दूलविक्रीडित छन्द ओ दुलभ इस आत्मदेह अन्तर लहि शीघ्र ज्ञानी भये। वे मुमि निर्मल ध्यान अग्नि सेतो अघकाष्ट बालत भये ।। केवल नेत्र प्रकाश सर्व लखके बैलोक पूजित मये। शिवमारग उद्योतकार सिद्धो हम होय भावत भये ॥६४||
उत्थानिका-आगे कहते हैं कि मुनीश्वरों का चारित्र हो आश्चर्यकारी है जो कर्मोको नाश कर देता है
येषां ज्ञानकृशानुराज्ज्वलतरः सम्यक्त्ववातेरितो। विस्पष्टीकृतसर्वतस्वसमितिदग्छ विपापैसि ।। वसोत्तप्तिमनस्तमस्ततिहतेदेदीप्यते सर्वदा । नाश्चयं रचयंति चिनचरिताश्चारित्रिणः कस्य ते ॥॥
अन्वयार्थ-(येषां) जिनकी (ज्ञानकषानुः) सम्यम्ज्ञानरूपी अग्नि (उज्ज्वलतर:) अपने प्रकाशमें बढ़ी हुई (सम्यक्त्ववातेरितः)सम्यग्दर्शनरूपी हवासे धौंकी हुई (विपापंसि दाधे) कर्मरूपी ईंधनको जला देने पर (दत्तोत्तप्तिमनस्तमस्ततिहतेः) व मनको आकुलित करने वाले सर्व रागादिक अंधकारको दूर कर देने पर विस्पष्टीकृतसर्वतत्वसमितिः) सर्व पदार्थों के व तत्वोंके समूहको एकही काल स्पष्ट प्रकाश करती हुई अर्थात् केवलज्ञान रूप होती हुई (सर्वदा) सदा ही (देदीप्यते) जलती रहती है (ते चित्रचरिता:) ऐसे विचित्र आवरण के (चारित्रिणः) आचरण करने वाले साघुगण (कस्य) किसके भीतर (आश्चर्य) माश्चर्य