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तत्पभावना
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पैदा होतो है, तब इसके ध्यानका अभ्यास होता है। जितना मात्मध्यानका वीतरागतारूप अभ्यास बढ़ता जाता है उतना उतना कर्मका मैल कटता जाता है । आत्मध्यानके ही अभ्यास से धर्मध्यानकी पूर्णता व शुक्ल ध्यानकी जागृति महान मुनियोंके जो उसी शरीरसे मोक्ष जाने वाले हैं होती है। इसी शुक्लध्यान से घातियाको को नाशकर वे केवलज्ञानी महंत परमात्मा हो जाते हैं तब उनको सर्व ध्य अपने गुण व अनंत पर्याय सहित विना किसी क्रमके एक ही काल में झलक जाते हैं। उस समय उनको सब ही देव, मानव, साधु, संत नमस्कार करते व पूजन करते व उनका धर्मोपदेश पानकर तृप्त होते हैं। वे उस समय उसी रत्नत्रयमई मोक्षमार्गमाल हैं शिप वार पर परमात्मा सर्वज्ञ हुए हैं। आचार्य भावना भाते हैं कि हम भी एसे अरहंतोंके वचनों पर श्रद्धा लाकर व उन ही की तरह आत्मध्यानका अभ्यास कर शुद्ध हो जायें और मोक्षके अनुपम मानंद को प्राप्त कर लेवें। प्रयोजन यह है कि बिना किसी इच्छाके व मानरहित होकर जो शुद्ध आत्मध्यान करते हैं वे ही परमसुखी होते हैं। मलीन ध्यानसे कभी शुद्धि नहीं हो सकती है।
श्री पद्मनंदि मुनि परमार्थविंशति में कहते हैंयो जामाति स एव पश्यति सदा चिपतां न त्यजेत् । सोहं मापरमस्ति किंचिदपि मे तत्त्वं तदेतत्परम् ॥ यच्च म्यसवशेषकर्मममितं क्रोधादिकार्यादि था। अत्याशास्त्रशतानि संप्रति मनस्येतच्छतं वर्तते ।।५।।
भावार्ष-जो जानने वाला है वही देखने वाला है, वह सदा ही अपने चैतन्य स्वभावको नहीं त्यागता है। और वही मैं हूं कोई दूसरा नहीं हूँ। मेरे जीव तत्वको छोड़कर दूसरा कोई भी