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तत्त्वभावना
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है तब पदार्थों का सच्चा स्वरूप जैसा का तैसा झलक जाता है। तब यह ज्ञानी जीव मात्र एक अपने आत्मा के ही शुद्ध स्थमाव को अपना जानता है। रागादि भावोंको, आठको को व शरारादिका व अन्य बाहर। पदाथों को अपना कभी नहीं जानता है । वह देख करके निर्णय कर लेता है कि सर्व पदार्थ विलय होते जाते हैं। किसीका सम्बन्ध मेरे आत्मा के साथ नित्य नहीं रहता है। शरीर हो जब छूट जाता है तब दूसरे पदार्थ की क्या गिनती ? तब वह ज्ञानी अपने मनको समझाता है कि जब तु भले प्रकार जान गया है कि जगत का एक परमाणु मात्र भी अपना नहीं है तब फिर तू क्यों मूढ़ बनता है और क्यों नहीं अपनी भूलको छोड़ता है ! तूने जिन शरीरादि पदार्थोंको अपना मान रवखा है वे जब तेरे नहीं होते तब तेरा उनसे मोह करना वया है। तू मात्र अपने स्वामी आत्मा को ही अपना मान । वास्तव में जिनके यथार्थ निर्णय हो जाता है उनके दुर्बुद्धि नहीं पैदा होती है।
श्री अमितिगति सुभाषित रत्नसन्दोह में कहा है--- पथार्थ तत्वं कथितं जिनेश्वरैः सुखावहं सर्वशरीरिणां सवा । निधाय कर्णे विहितार्यनिश्चयो न भव्यजीवो वितनोति दुर्मतिम्
१५७॥ भावार्थ-जिनेन्द्र भगवान ने सर्व शरीरधारी प्राणियों को सदा सुख देने वाले यथार्थ तत्व का कथन किया है । जो अपने कानों से सुनकर दिल में रखता है व ठीक-२ निश्चय कर लेता वह भव्यजीव फिर मिथ्याबुद्धि नहीं करता है।
मूल श्लोकानुसार शार्दूलविक्रीडित छन्द जो मिथ्याती मोह अन्धमति हो पर वस्तु निज मानता । सम्यक्ती निजमारम नित्य निर्मल उसको गनिज जानता ।।