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लक्ष्यभावना
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जब वह लोभको हटाकर संतोषी व शांत होगा तब ही उसका प्रन क्षोभरहित होगा । जैसे समुद्र में अगाध जल होता है व रत्न भी होते हैं परन्तु उसके मध्य में जो बड़वानल जलती है उससे समुद्र का जल सदा शोभित रहता है- निश्चल नहीं ठहर सकता । यहाँ यह बताया है कि सम्यग्दृष्टी होकर भी निश्चिन्त रहना चाहिए किंतु सर्व लाभ के मैलको हटाने के लिए परिग्रह का त्याग करके निर्लोभी हो जाना चाहिए । निर्लोभी ही आकु लता रहित आत्मध्यान कर सकते हैं इसलिए लोभ कषाय को जीतना आवश्यक है ।
स्वामी अमित तिजी ने सुभाषितरत्न संदोह में कहा हैचक्रेश केशव हलायुधभूषितोपि । संतोषमुक्तमनुजस्य न तृप्तिरस्ति ॥ तृप्ति बिना न सुखमित्यवगम्य सम्यग्लोभग्रहस्य वशिनो न भवंति धीराः ॥७॥
भावार्थ - चक्रवर्ती, नारायण आदिकी बहुत विभूति व मायुध आदिसे विभूषित होनेपर भी यदि किसी मानव में संतोष नहीं है तो उसको कभी तृप्ति नहीं मिल सकती है । जहाँ मनमें सृप्ति नहीं वहां कभी सुख नहीं प्राप्त हो सकता ऐसा जानकर धीर पुरुष कभी भी लोभ रूपी पिशाचके वशीभूत नहीं होते हैं ।
मूल श्लोकानुसार शार्दूलविक्रीडित छन्द सम्यग्दर्शन ज्ञान संयममयो तप शील बारे सही । पर मनसे तृष्णा तजे नहिं कधी संश्लेश त्यागे नहीं ॥ लाना रस्न समूह धार उदधो जलका नहीं पार है। बडवानल विसमध्य मित्य जनता संताप कर्तार है || ६७॥