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जो बधि गुड़ घी सन्निपात धरके तनको वियोगी करे I
सो ही रोगरहित पुरुष यदि म उत्थानिका --- आगे कहते हैं लोभ
अत्यन्त पुष्टी करे | ८६ | कषाय ज्ञानी मानवों को
भी संताप का कारण है
तस्वभावना
सम्यग्दर्शनबोध संयततपः शोलाविमाजोऽपि नो ।
विभ्राणस्य विश्विवरश्न नचितं दुष्प्रापपारं पयः । संतापं किमुवन्यतो न कुरुते मध्यस्थितो वाडवः । ८७ । अन्वयार्थ - ( भवभृतः ) संसार में रहने वाले प्राणी के ( सम्यग् - दर्शनबोधसंयमतपःशीलादिभाजः अपि ) जो सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान संयम, तप व शोल मादि गुणोंको रखने वाला भी है परन्तु यदि ( लोभानलं विनतः) उसके मनमें लोभको आग जल रही है तो उसके पास से ( संक्लेशो) संक्लेशभाव ( दो विनिवर्तते नहीं हटता है | ( विचित्ररत्ननिचितं ) नाना प्रकार रत्नों के समूह को व (दुष्प्रापपारं पयः ) जिसका पार करना कठिन है ऐसे जल को ( विवाणस्य ) धारण करने वाले ( उदन्वतः ) समुद्र के ( मध्य स्थितः ) बीचमें रहा हुआ ( वाडवः ) दावानल ( किं) क्या (संतापं ) संताप को या क्षोभ को ( न कुरुते ) नहीं करता है ?
मावार्थ- वहाँ पर यह बात दिखलाई है कि लोभकषाय महान आकुलता व संक्लेशभाव का कारण है । साधारण मनुष्य की तो बात ही क्या यदि कोई सम्यग्दृष्टी व ज्ञानो संयमी साधु भी हों और उनके भीतर यदि कभी प्रतिष्ठा पाने का पूजा
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करने का रस सहित भोजन पाने का इत्यादि किसी प्रकार का
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लोभ हो जाये तो उसके परिणाम शांत व स्वस्थ न रहेंगे ।