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भावार्थ - यहाँ पर आचार्य दिखलाते हैं कि शुद्ध वीतराग भावमयी निर्मल तप से ही कर्मों की निर्जरा हो सकती है । जो कोई तप तो करे परन्तु तप को भी अभिमान सहित करे व आगामी भोगों की इच्छारूप निदान सहित करे व इस श्रद्धान को न पाकर करे कि शुभ भाव से बंध होता है तथा शुद्ध भावों से निर्जरा होती है और शुभभाव से ही मोक्ष मान ले तो ऐसा तप उल्टा कर्मों को बांधने वाला है। यह तप मलीन है, शुभ या अशुभ भाव सहित है, ऐसा तप मिथ्यात्वसहित है यदि घोर कष्ट सहकर व महीनों उपवास करके ऐसे मिथ्या तप को बहुत तक साधन करे तो भी इस तप से बंध ही होगा, आत्मा अधिक मैला होगा। जिस हेतु से तप किया था कि मैं शुद्ध हो जाऊँ वह हेतु कभी भी पूरा नहीं होगा । परन्तु जो सम्यग्दर्शन सहित वीतरागभावों को बढ़ाता हुआ तप करेगा और शुद्धोपयोग में रमण करेगा उसके अवश्य पिछले कर्मों की बहुत निर्जरा होगी और नवीन कर्मों का बहुत संघर होगा । इसलिए शुद्धोपयोग भाव ही आत्मा को शुद्ध करने वाला है । यह विश्वास दृढ़ रख के इस भावको जगाने के ही लिए तप करना योग्य है, जो आदमी मैल से बिलकुल मेला हो रहा है उसके मैल धोने के लिए शुद्ध साफ पानी चाहिये । यदि कोई मैल से मिले हुए पानी से नहावे तो उसका मैल कभी भी शरीर से उतरेगा नहीं - और चढ़ता रहेगा । शुद्ध पानी से ही मसल मसलकर नहाने से शरीर शुद्ध होगा, इसी तरह शुद्ध ध्यानमयी तप के अभ्यास से ही मलीन - आत्मा शुद्ध होगा ।
तस्वभावना
स्वामी अमितगति सुभाषितरत्नसंदोह में निर्मल तप साधकों -की प्रशंसा करते हैं