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तत्त्वभावना
मूर्च्छारूप रागभाव या परिग्रह कम होता जाता है उतने २ हो ऊंचे जाने लायक पुण्यकर्म बांध कर ऊंचे-२ विमान में देव, इन्द्र या अहमिन्द्र पैदा होते हैं। जिनके दिलकुल नष्ट हो जाता है वे उसी जन्म से अरहन्त परमात्मा होकर फिब सिद्ध परमात्मा होकर तीन लोक के ऊपर सिद्धक्षेत्र में विराजमान हो जाते हैं। सबसे अधिक मूर्छावान परिग्रही सबसे अंतिम सातवें नर्क में जाता है जबकि परिग्रह का पूर्ण त्यागी, पूर्ण दीतरागी सीधा मुक्तिमें चला जाता है, ऐसा जानकर आचार्य कहते हैं कि दे आत्मन् ! यदि तू सर्वोच्च पदको प्राप्त करना चाहता है और संसार की आकुलताओं से बचकर नित्य आत्मीक आनंद का स्वाद लेना चाहता है तो सबसे ममता छोड़कर एक निज शुभ स्वरूप का प्रेमी वन और उसीके मनोहर आत्म उपवन में रमण कर वृथा क्यों जगत के ममत्व में अपने को दीन हीन बना रहा है ।
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स्वामी अमितगति ने सुभाषितरत्नसंदोह में कहा है कि लोभ की बाग आत्मीक गुणों की घातक है
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लग्धग्धनञ्बलन बत्क्षणतोऽतिषद्ध । लामेन लोभवहनः समुपैति जन्तोः ॥ विद्यागमव्रत तपः शमसंयमादी
नमस्मीकरोति यमिनां स पुनः प्रवृद्धः || ६४॥
भावार्थ - जैसे अग्नि में ईन्धन डालने से आगे क्षणभर में अढ़ती जाती है वैसे ही लोभ को बाग प्राणी के भीतर लाभ के