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सत्त्वभावना
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होनेसे बढ़ जाती है । वह बढ़ी हुई लोभ की आग संयमी साधुओं के विद्या के नाम की, नल को. को, शांतभाव को तथा संयमादि को भस्म कर देती है।
मूल श्लोकानुसार शार्दूलविक्रीडित छन्द पलड़ा भारी जात है अधोको बिन भार ऊपर रहे। जो कोई बहु संग मार रखता सो नीचगति ही लहे ।। तज परिग्रह जंजाल होय निस्पृह सो ऊर्च गति जात है। मन यच काय सम्हार सङ्ग तज दे अध बंध जो लास है।
उत्थानिका-आगे कहते हैं कि तप को पालते हुए उसे शद्ध रखना चाहिए, मलीन न करना चाहिए ।
सद्यो हन्ति दुरंतसंसृतिकरं यत्पूर्वकं पातकम् । सुद्धचर्ष विमलं विधाय मलिनं तत्सेवते यस्तपः ॥ शुद्धि याति काममापि गप्तधीमांसावबद्यार्जकम् । एकीकृस्य जलं मलाचिततनुः स्नातः कुतःशुध्यति ॥३॥
अन्वयार्थ-(यत्) जो (विमलं तपः) निर्मल तप (दुरन्तसंसृतिकर) दुःखमयी संसार को बढ़ाने वाले (पूर्वकम) पूर्व में किये हुये (पातक) पापको (सद्यः) शीघ्र ही (हन्ति) नाश कर सकता है (तत्) उस तपको (मलिन) मलीन व (अवद्यार्जकम्) पापको बांधने वाला ऐसा (विधाय) करके (यः) जो कोई (शुद्धयर्थं) कर्मों के मैल से शुद्ध होने के लिए (सेवते) सेवन करता है (असौ) वह (गतधीः) निर्बुद्धि (कदाचनापि) कभी भी (न शुद्धि याति) नहीं शुद्ध हो सकता है (मलाचिततनुः) मल से जिसका शरीर भरा हुआ है ऐसा पुरुष (जलं एकीकृत्य) बल को मेल से मिलाकर (स्नातः) स्नान करते हुए(कुतः) किस तरह (शुध्यति) मल रहित शुद्ध हो सकता है... । .