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उत्पानिका – आगे कहते हैं कि मोहांध पुरुष परके पदार्थको अपना ही समझ लेते हैं परन्तु निर्मोहीते मंदाक्रांता वृत्तम्
तत्त्वभावना
मोहांधानां स्फुरति हृदये बाह्यमात्मीयबुध्या । निर्मोहानां व्यपगतमलः शश्वदात्मैव नित्मः ॥ तवं यदि विविविषा ते स्वकीयं स्वकीर्य -- मोहं चित्त ! क्षपयसि तवा कि न दुष्टं क्षणेन ॥ ८६ ॥ अन्वयार्थ - (मोहांधानां) मोह से अन्धे जीवों के ( हृदये) हृदय में (बाह्यम्) बाह्य स्त्री, पुत्र शरीरादि पदार्थ ( आरमीयबुद्धया) अपने आत्मापने की बुद्धिसे अर्थात् वह अपना ही है ऐसा ( स्फुरति ) झलकता है । ( निर्मोहानां) मोह रहित पुरुषों के हृदय में (व्यपगतमल: ) कर्ममेल से रहित (नित्यः) अविनाशी ( आत्मा एव ) आत्मा ही ( शश्वत् ) सदा अपनापने की बुद्धि से झलकता है । (चित्त) हे मन ! (यदि यत्) अगर जो इन दोनों के भेदको (ते विविदिषा) तू समझ गया है तब ( स्वकीयैः ) इन अपनों से अर्थात् इन स्त्री पुत्रा दिसे जिनको तूने अपना मान रक्खा है ( स्वकीयं ) अपनेपन का (दुष्ट) दुष्ट (मोहं) मोह ( कि न ) क्यों नहीं ( क्षणेन क्षपयसि ) क्षण मात्र में नाश कर देता है ।
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( तदा )
तदभेदं )
भावार्थ - जहांतक संसारी जीवों के हृदय में मिथ्यात्व कर्मका उदय है कि जिससे उनके मिथ्याभाव रहता है वहाँ तक वे पर वस्तुको अपनी माना करते हैं। जो शरीर क्षणभंगुर हैं उसे अपना मान लेते हैं, फिर शरीर के सम्बन्धो संपूर्ण पदार्थों को अपना मान लेते हैं, उनकी बुद्धि बिल्कुल अंधी हो जाती हैं परन्तु जब मिथ्यात्व चला जाता है और सम्यग्दर्शन का प्रकाश हो जाता