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बहते हुए निकल जाती है। न तो इन पदार्थोंके सदा साथ रहने का निश्चय है और न अपना हो उनके साथ सदा बने रहने का निश्चय । क्योंकि इन बाहरी पदार्थों का सम्बन्ध यदि है तो मात्र इस देह के साथ है, देह आयुकर्मके आधीन है नवश्य छूट जायगो तब चक्रवर्ती को भी सर्व सम्पत्ति यहीं छोड़ देनी पड़ती है । आत्मा अकेला अपने पुण्य तथा पापके बंधनको, लिए हुए दूसरी गतिमें चला जाता है । इन पदार्थोंको सुखदाई मानना भी भूल है । इनके लाभ करनेमें, इनकी रक्षा करनेमें. इनके वियोग होने पर इनके बिगड़ने पर प्राणीको खेद व दुःखही अधिक होता है, अभिप्राय यह है कि ज्ञानी जीव इनको अपने आत्माकी सुखदाई सम्पत्ति नहीं मानता है । वह ज्ञानदर्शन सुख बीर्य आदि आत्मोक गुणों को ही अपनी अटूट व अविनाशी सम्पदा मानता है, अज्ञानीका इन अनित्य पदार्थोंको अपना मानना ऐसी ही मूर्खता हैं जैसे कोई अपने मनमें ऐसा माना करे कि में तो स्वर्गका इंद्र हूँ व देव हूँ, मैं स्वर्ग में रमण कर रहा हूँ। जैसा यह संकल्प झूठा है मात्र एक ख्याल है, वैसे ही अनित्य पदार्थों को अपना मानना एक ख्याल है व भ्रम है। स्वामी पद्मनंदि अनित्य पंचा शत् में कहते हैं
हंति व्योमस मुष्टिनाव सरितं शुष्कां तरत्याकुलस्तुष्णार्तोथ मरीचिकाः विपत्ति व प्रायः प्रमतो भवन् ॥ प्रोतुंगाचल भूलिफागतमस्तु प्रेत् प्रवीशेप - यंत् संपत् सुतकामिनीप्रभूतिभिः कुर्यान्मवं मानवः ॥ ४३ ॥
तस्वभावना
भावार्थ - जो कोई मानव धन, पुत्र, स्त्री आदि अनिश्य पदार्थोंके होते हुए इनको अपना मानकर मद करता है वह मानरे