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तत्त्वभापना
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पार नहीं है। मानवों के आरम्भ द्वारा उनको सदा ही कष्ट भिला हो करता है। दबके, कुटके जलके, उबलके, घरकों से, बुझाए जानेसे, रौदे जानेसे, कांटे, छोले जाने से आदि अनेक तरहसे ये कष्ट पाते हैं। द्वेन्द्रियादि कोड़े मकोड़े, चींटी, चोंटे मक्खो, पतंग, भुनगे आदि मानवोंके नाना प्रकारके मारम्भों के द्वारा दबके, छिलके, भिदके, जलके, गर्मी, सर्दी, वर्षा, भूख, प्यास आदिको बाधासे व सबल पशुओंसे नाशहोकर घोर त्रास उठाते हैं । पंचेन्द्रिय पशु पक्षी, मच्छादि मानवोंके द्वारा सताए जाने, मारे जाने, सबल पशुओंसे खाये जाने, अधिक बोझा लादे जाने, भूख, प्यास,गर्मी, सर्दी, आदिके दुखोंसे पीड़ित रहते हैं।
मानवों की अवस्था यह है कि बहुत से तो पेटभर अन्त नहीं पाते, अनेक रोगोंसे पीड़ित रहते हैं, पर्याप्त धनके विना आतुर रहते हैं, इष्टवियोग व अनिष्ट संयोगसे कष्ट पाते हैं। इच्छित पदार्थ के न मिलनेसे अधिक सम्पत्तिवान देखकर ईर्ष्या करते हैं, दूसरोंको हानि पहुंचाने के लिए अनेकषड़यंत्र रचते हैं, जब पकड़े जाते हैं कारावासके घोर दुःख सहते हैं । बहुतोंको पराधीन रहने का घोर कष्ट होता है, बड़े-२ संकटो के उठाने पर आजीविका लगती है । धन परिश्रमसे संचय हुआ जब किसी आकस्मात से जाता रहता है तो बड़ा भारी कष्ट होता है। अपने जीते जी प्रिय स्त्री, प्रियपुत्र, प्रिय मित्र मादिका मरण शोक सागर में पटक देता है। मानवों का शरीर तो पुराना पड़ता जाता है। इंद्रिये दुबली होती जाती हैं परन्तु पाँचों इंद्रियों के भोगों को तुष्णा दिनपर दिन बढ़तों जाती है । तृष्णाकी पूर्ति न कर सकते के कारण यह मानव महान आतुर रहता है । यकायक मरण आ जाता है । तब बड़े कष्ट से मरता है।