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जग के प्राणी (बहुकक्षया) तीव्र विषय भोगों की इच्छा के वश होकर (बहुविधा ) नाना प्रकार की ( हिंसापरा:) हिंसा को बढ़ाने वाली ( षक्रिया : ) असि मसि, वाणिज्य शिल्प विद्या इन छः तरह की आजीविका सम्बन्धी क्रियाओं को (कुर्वाणाः) करते हुए (दुःखोदयकारणं) दुःखों की उत्पत्ति के कारण (गुरुतरं) ऐसे भारी (पाप) पाप कर्म को ( बधनंति) बाँधते रहते हैं (नीरोगत्वचिकीर्षया ) रोग रहित होने की इच्छा करके ( अमी) ये प्राणी ( अपथ्यभुक्तीः ) अपथ्य भोजनों को ( विदधतः ) करते हुए ( अहो ) अहो ! (किं ) क्या ( सर्वांगीणम् ) सर्व अंग में (व्योदयकरं ) कष्ट को पैदा करने वाले ( रोगोदयम् ) रोग की उत्पत्ति को ( न यांति ) नहीं प्राप्त होंगे ?
तरवभावना
भावार्थ - यहाँ पर आचार्य ने बतलाया है कि जो सच्चे सुख की वांछा रखते हैं उनको उसका सच्चा उपाय छोड़कर उससे विरुद्ध उपाय नहीं करना चाहिए । सच्चा सुख आत्मज्ञान व आत्मध्यान से होता है, वह ध्यान परिग्रह त्यागसे भले प्रकार हो सकता है। जो सच्चे सुख को चाहकर भी दुःखों को देनेवाले पापों को नाना प्रकार आरम्भ करते बाँधते रहते हैं उनको सुख कभी प्राप्त नहीं हो सकता। जो बबल बोता है उसको कांटे हो मिलेंगे, उसको नाम के फल कभी नहीं मिल सकते हैं। जो पापों का संचय करेगा उसको दुःख ही मिलेगा उसको सुख का लाभ कैसे हो सकता है । इसपर दृष्टान्त दिया है कि जैसे कोई मानव निरोग रहना चाहे परन्तु बदहजमी करनेवाले ऐसे भोजनों को खाया करे तो फल उल्टाही होगा अर्थात् रोग मिटाने की अपेक्षा रोग बढ़ जाएगा । रोग के बढ़ने से सारे अंग में भारी कष्टोंको भोगना पड़ेगा |
इसलिए बुद्धिमान प्राणीको सुविचार करके वही काम करना
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