________________
२१२]
तस्वभावना
नहीं करते हैं। यह सब मोह का माहात्म्य है । तथापि जिसकी समझ में यह रहस्य आ गया है कि संसार त्यागने योग्य है व मोक्ष ग्रहण करने योग्य है उसको तो मिर पाल के नशीशत नहीं होना चाहिए और निरन्तर आत्मानुभव का उद्यम करके इस लोक तथा परलोक में सुखी रहना चाहिए।
स्वामी अमितगति ने ही सुभाषित रत्नसंदोह में कहा हैविचित्रवर्णाचितचित्रमुत्तमं यथा गत क्षो न जनो विलोकते। प्रर्दश्यमानं न तथा प्रपद्यते कुदृष्टिजीयो जिननाथशासनम् ।१४५
भावार्थ-जैसे अन्धा मनुष्य नाना प्रकार वर्णी से बने हुए सन्दर चित्र को नहीं देख पाता है, इसी तरह नाना प्रकार उत्तम तत्वों से भरे हुए जिनेन्द्र के मत को दिखलाए जानेपर भी मिथ्यादष्टि अज्ञानी जीव नहीं समझ पाता है, यह सर्व मोह का तीन वेग है।
मूल श्लोकानुसार शार्दूलविक्रीडित छन्द है संसार मलीन क्लेशकारी नाना उपद्रव भरा। सर्व आपत्ति विहीन मोक्षशाश्वत् परमोच्च वर सुखकरा ॥ है जो मोह कपाय बुद्धिघारी नहिं बसता सत्य को। सर्वोत्तम सुख मोक्ष छोड़ रमता संसार निःसत्यको ॥१॥
उत्थानिका-आगे कहते हैं कि बाहरी पदार्थों पर इच्छा रखने से पाप का संचय होता है।
रे दुःखोवयकारणं गुरुतरं वनंति पापं जनाः। कुर्वाणा बहुकांशया बहुविधा हिसापराः पक्रियाः॥ नीरोगत्वाचकोर्षमा विवधतो नापम्यभक्तीरमी। सर्वाङ्गीणमहो व्यथोक्यकरं किं यांति रोगोश्यं ॥२॥ अम्बयार्ष--(रे) अरे ! बड़े खेद की बात है कि (बना।)