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तत्त्वभावना
कर्मोद्भूतं समस्तं चपलमसुखदं तत्र मोहा मुधा मे। पर्यालोम्येति जीवः स्वहितमवितथं मुक्ति मार्ग श्रय त्वम् ।४१६
भावार्थ मेरा तो एक अपना ही आत्मा अविनाशी सुखमई,दुःखों का नाशक, ज्ञान दर्शन स्वभावधारी है। यह शरीर, धन, इन्द्रिय, भाई, स्त्री, संसारिक सखादि मेरे से अन्य पदार्थ कोई भी मेरा नहीं है क्योंकि यह सब कर्मों के द्वारा उत्पन्न हैं, चंचल हैं, क्लेशकारी हैं। इन सब क्षणिक पदार्थों में मोह करना वृधा है। ऐसा विचार कर हे जीव ! तू अपने हितकारी इस सच्चे मुक्ति के मार्ग का आश्रय ग्रहण कर |
मूल श्लोकानुसार शार्दूलविक्रीडित छन्द संसारिक जो काम यत्न करके करता बहुत श्रम लिए । सो सब क्षण में नाश होत जैसे मस्पिड जल में दिए । फिर क्यों मर्ख प्रवृत्ति पर्थ अपनो करता क्षणिक कार्यको । बुधजत खुब विवार कार्य करले तजसे वृया कार्य को 1८०॥
उत्थानिका—आगे कहते हैं कि जो आत्माएं कषायों को तोब बाधा से आकुलित हैं वे संसार में हो आशक्त रहती हैं, उनको आत्मोक शांति की परवाह नहीं रहती है। चिनोपनवसंकुलामुरुमलां निःस्वस्थतां संस्सति । मुक्ति नित्यनिरंतरोन्नतसुखामापत्तिभिर्वजिताम् ॥ प्राणो कोपि कषायमोहितमति! तत्त्वतो बध्यते । मुक्त्वा मुक्तिमनुत्तमामपरया कि संसृतौ रज्यते ।।८१॥
अन्वयार्थ (चित्रोपद्रवसंकुलाम्)नाना प्रकारको आपत्तियों से भरे हुए (तरुमलां) महा मलीन(निःस्वस्थता)आत्मीक शांति से रहित महा आकुलतामय(संसति)इस संसारको तथा आपत्ति