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इस कारण देवभी मानसिक कष्टसे पीड़ित हैं । जब चारों ही गति में दुख है तब सुख कहाँ है तो आचार्य कहते हैं कि सुख अपने आत्मा में है । जो अपने आत्माको समझते हैं और उसकी
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तस्वभावना
शुद्ध स्वाधीन अवस्था व मोक्षके प्रेमी होकर आत्मा के अनुभव में मग्न होते हैं उनको सच्चा सुख होता है। ऐसे महात्मा चाहे जिस गति में हों सुखी रहते हैं। परन्तु ये सब महात्मा संसारी नहीं रहते हैं, वे सब मोक्षमार्गी हो जाते हैं। उनका लक्ष्यबिंदु मोक्ष होता है। वे आत्मध्यान करते हुए शुद्ध भावों का लाभ पाते हैं जिससे कर्म करते जाते हैं और यहो शुद्ध भाव उन्नति करते करते मोक्ष के भाव में हो जाते हैं। इसलिए आचार्य का उपदेश है कि आत्मीक शुद्ध भावोंकी पहचान करो जिससे यहाँ भी सच्चा सुख पाओगे व आगामी भी सुखी होगे ।
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श्री अमितिगति महाराज सुभाषित रन्नसंदोह में कहते हैंत्यजतु युवति सौख्यं क्षान्तिसौदयं भयध्वं विरमत भवमार्गान्मुक्तिमार्गे रमध्वम् । जहित विषय संग ज्ञानसंगं कुरुध्वं अभितिगतिनिवासं येन नित्यं लभध्वम् ॥ १६ ॥
भावार्थ - स्त्रियोंके सुखको छोड़ो क्षमाभाव सहित शांतिमय सुखका आश्रय करो, संसारके भोगोंसे विरक्त हो मोक्षके मार्ग में रमण करो, इंद्रियोंके विषयोंका रस छोड़ो आत्मज्ञानकी संगति करो जिससे तुमनित्य अनंतज्ञान के नवमोक्षको प्राप्तकर सकोमूल श्लोकानुसार शार्दूलविक्रीडित छन्द
आपस में मे जीव नर्क सके दुःसह सहा मुख सहें,
गति में हो बाह विरे विशाल पोड़ित रहें ।
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