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में (घीधनाः) बुद्धिमान प्राणी (हित हित्वा) अपने हित को छोड़कर (कुतः) किस तरह (कदाचित्) कभी भी विहित) दुःखदाई काम को (कुर्वन्ति) करेंगे।
भावार्थ-यहां भाचार्य कहते हैं कि यह जीव अपने भावों से ही अपना कल्याण कर लेता है तथा भावोंसे ही अपना विगाड़ कर लेता है। जैसे भाव होते हैं वैसा कार्य होता है। शुद्ध भावों से कर्मों की निर्जरा होकर मोक्ष हो जाता है तथा शुभ भावोंसे पुण्यबंध होकर स्वर्गादिक शुभ गति प्राप्त होती है तथा अशुभ भावोंसे पाप बंधता है जिससे नरक आदिकी खोटी गति प्राप्त होती है ऐसा जानकर सन्त पुरुष सदा ही शुद्ध भावों में रहने का उद्यम करते हैं। जब शुद्ध भावों में परिणाम नहीं ठहरता है तब शुभ भावोंमें जम जाते हैं परन्तु वे अशुभ मलीन भावोंको कभी नहीं ग्रहण करते हैं। उनको तो दूरसे हो त्यागते हैं। बुद्धिमान मानव वे ही हैं जो अपने हित अहित का विचार करें। जिन कार्योंसे अपना बुरा होता जाने उनको तो छोड़ दें व जिनसे अपना भला होता जाने उनको साधन करें। तात्पर्य यह है कि सुख शांतिकी प्राप्ति अपने आत्मानुभव से ही होगी इसलिए विषयों की खोटी व्यासना को त्यागकर बुद्धिमान को सदा आत्म मननमें ही उद्योगो रहना योग्य है। सारसमुच्य में श्री कलभद्र मुनि कहते हैं
आस्मकार्य परित्यज्य परकार्येषु यो रतः। ममत्त्वरतचेतस्कः स्वहितं प्रेशमेष्यति ।।१५७।। स्वहितं तु भवेज्ज्ञानं चरित्रं दर्शनं तपा। तपः संरक्षण व सर्वविमितवष्यते ॥१५॥