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तत्त्वभावना
देने वाले हैं ऐसा (प्रोच्यन्ते) कह सकते हैं। (शर्माथिनः) जो सुख के अर्थी हैं वे (सुधियः) बुद्धिमान प्राणी (दु:खोद्रेकविदधन) दु:ख के वेग को बढ़ाने वाले कार्य को (न कुर्वन्ति) नहीं करते हैं।
भावार्थ- आचार्य कहते हैं कि इंद्रियों के भोगोंकी चाहनाएँ इस जीव के लिए महान शत्रुता का काम करती हैं। ये चाहनाएं ऐसी प्रबल होती हैं कि इनको दूर करना कठिन होता है। तथा इनको जरा भी दया नहीं होती है, इनके कारण रात्रिदिन इस लोक में भी आकुलतान लोकादि के दुभत्र महने पड़ते हैं। व तीन कमं बांधकर परलोकमें दुर्गति के कष्ट भोगने पड़ते हैं। जो इनको पुष्ट करते हैं उनको अधिक-२ दु:ख देती हैं। ये विषयरूपी शत्र वास्तव में इस जीव की जन्म मरणरूपी परिपाटी को बढ़ाने वाले हैं तब मोक्षके आनन्द को चाहने वाले इन इंद्रियों के विषयों को किस तरह ऐसे कह सकते हैं कि ये सर्व प्राणियों को सुखके देने वाले हैं ?। इनको सुखदायी कहना नितान्त भूल है। जिनसे उभयलोक कष्ट मिले उनको कोई भी बुद्धिमान सुखदायी नहीं मान सकता है। इसीलिए जो सुख के अर्थी बुद्धिमान हैं वे कभी भी ऐसा काम नहीं करते जिससे उल्टा दु:ख बढ़ जावे । अर्थात् वे इन इंद्रिय विषयों को बिल्कुल मुंह नहीं लगाते हैं। किन्तु इनसे विरक्त हो आस्मसुख के लिए आत्मानुभव का ही प्रयत्ल करते हैं। सुभाषित रत्नसंदोहमें स्वामी अमितगति कहते हैं
आपातमावरमणीयमाप्तिहेतुं। किपाकपाकफलतुल्यमयो विपाके।। मो शाश्वतं प्रचुरवोषकरं विदित्वा । पंधेन्द्रियार्यसुखमर्षधियस्त्यति ॥९॥