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तस्वभावना
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भीतर स्वतंत्र हैं उनके विकास के लिए किसी बाहरी प्रकाश की व अन्य किसीकी सहायताकी जरूरत नहीं है। यह आत्मा पूर्णपने शुद्ध अनंत ज्ञान व अनंतदर्शन से भरा हुआ है। मैं ऐसा ही हूँ इस प्रकारका अनुभव सदा करना योग्य है । यह स्वात्मानुभव हो आत्माको परमात्मा पद में ले जाने वाला है। जो बुद्धिमान भेदविज्ञानी निपुण पुरुष हैं वे आत्मचितवन को छोड़कर और कोई रागद्वेषवर्धक चितवन नहीं करते हैं, क्योंकि पर की चित्ता बन्धन को करने वाली है, जो आत्मा को मुक्तिमार्ग में विघ्नकारक है। लौकिक में भी बुद्धिमान लोग अपना जो उद्देश्य स्थिर कर लेते हैं उसके अनुकूल ही कार्य करते हैं उसके विरुद्ध कार्य से सदा बचते रहते हैं।
श्री पद्मनंदि मनि निश्चय पंचाशत में कहते हैंअहमेवचित्स्वरूपश्चिद्रूपस्याश्रयो मम स एव । नान्यत्किमपि जड़त्वात् प्रीतिः सदशेषु कल्याणी ॥४२॥ स्वपर विभागावगमे जाते सम्यकपरे परित्यक्ते । सहजैकबोधरूपे तिष्ठत्यात्मा स्वयं सिखः॥४२॥
भावार्य-मैं ही चैतन्य स्वरूप हूँ तथा मेरेको चैतन्य का ही आश्रय है मैं और किसी का आश्रय नहीं लेता हूँ क्योंकि मेरे सिवाय अन्य पदार्थ सब जड़ हैं तथा यह भी न्याय है कि समान स्वभाव वालों में ही प्रीति करनी योग्य है । जिस समय इस आत्मा को अपना और पर का स्वरूप अलग-२ भले प्रकार समझ में आ जाता है तब यह स्वयं सिद्ध आत्मा पर पदार्थ को छोड़कर अपने ही स्वाभाविक एक ज्ञान स्वभाव में लवलीन हो जाता है।
वास्तव में आत्मलीनता ही सच्ची सामायिक है