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सज्जन पुरुष सदा उत्तम फलदायी कार्यों को ही करते हैं । जैसा अमितगति महाराज ने सुभाषित रत्नसंदोह में कहा हैचित्ताल्हा विव्यसनविमुखः शोकता पापनोति । प्रशोत्पादि श्रवणसुभगं न्यायमार्गानुयायि ॥ तथ्यं पथ्यं व्यपगतमलं सार्थकं मुक्तबाधं । यो निर्दोषं रचयति वचस्तं बुधाः सन्तमाहुः || ४६१ ||
तत्त्यभावना
भावार्थ -- जो कोई बरी आदतों से अलग रहता हुआ ऐसा वचन कहता है जो चित्तको प्रसन्न करने वाला हो, शोक संताप को हटाने वाला हो, बुद्धि से उत्पन्न हुआ हो, कानों को प्रिय मालूम हो, न्यायमार्ग पर ले जाने वाला हो, सत्य हो, हजम होने योग्य हो, दोषरहित हो, अर्थसे भरा हो व बाधाकारक न. हो उसी को बुद्धिमानों ने सन्तपुरुष कहा है ।
मूल श्लोकानुसार शार्दूलविक्रीडित छन्द निर्दय यम भयमति जन्तु मारे इससे जु डरना वृथा । इच्छित सुखन प्राप्त होय कब ही अभिलाष करना वृथा ॥ मृतगत शोध किये न लौट आता है शोक करना बुथा । विद्वजन सुविचार फार्म निष्फल करते नहीं सर्वथा ॥७३॥
उत्थानिका- आगे आचार्य कहते हैं कि आत्मोक सुख के लिए प्रयत्न कर, संसारिक सुख के लिए वृथा क्यों इच्छा करता है ।
स्वस्थेऽकर्मणि शाश्वते विकलिले विद्वज्जन प्रार्थिते । संप्राप्य रहसात्मना स्थिरधिया त्वं विद्यमाने सति ॥ बाह्यं सोममवाप्तुमंतविरसं कि खिन्नसे नश्वरम् । रेसिले शिवमन्दिरे सति चरी मा मूढ भिक्षां भ्रमः ॥७४