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सहप्रभावला
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अन्वयार्थ - ( स्वस्थे) जो सुख अपने आत्मा में ही स्थित है। ( अकर्मणि ) जो कर्मोंके उदयसे प्राप्त नहीं होता अथवा जो कर्मों के नाशसे प्रगट होता है ( शाश्वते ) जो अविनाशी है ( विकलिले व जो मल रहित निर्मल है ( विद्वज्जनप्रार्थिते ) जिस सुखकी विद्वान लोग सदा इच्छा किया करते हैं तथा जो ( स्थिरधिया आत्मना ) स्थिरभाव करनेवाले आत्मा के द्वारा ( रहसा हंप्राप्ये) सहज ही में प्राप्त होने योग्य है ( विद्यमाने सति ) ऐसा सुख अपने पास होते हुए ( त्वं ) तू (अंतविरसं ) जो अंत में रस रहित है ( नश्वर ) व नाशवंत है ऐसे (बाह्य सौख्यम्) बाहरी इंद्रियजनित सुखको (अवाप्त) प्राप्त करने के लिए ( कि ) क्यों (खिद्यसे ) खेद उठाता है (रे मूढ़) रे मूर्ख ( शिवमंदिरे चरी सिद्धे सति ) महादेवजी के मंदिर में खाने को नैवेद्य मिलते हुए (भिक्षां मा भ्रमः) भिक्षा के लिए मत भ्रमण कर ।
भावार्थ - यहां पर आचार्य कैसा सुन्दर कहते हैं कि जो वस्तु अपने पास ही हो उसको न जानकर उस वस्तु के लिए बाहर ढूंढते हुए खेद उठाना नितान्त मूर्खता है। कोई साधु महादेव जीके मंदिर में रहता था वहीं जब उसको पेटभर खानेको मिष्टा न आदि मिल जावे तब उसको भिक्षा के लिए भ्रमण करना बुधाही कष्ट उठाना है। आत्मा का स्वभाव आनन्द है यह अविनाशी हैं । पापरहित है । कर्मों के नाश से प्रगट होता है । इसी आनन्द को सदा साधुजन चाहा करते हैं तथा यह आनन्द मात्र अपने उपयोग को अपने में स्थिर करनेसे ही अपनेको प्राप्त हो जाता है। जो अपने ही पास है व जिसके लिए किसी दूसरे पदार्थको जरूरत नहीं है व जो सदा ही तृप्तिकारक है, जो ऐसे सच्चे सुखको मूर्ख जन नहीं पहचानते हैं और उस सच्चे सुख के