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क्रोधादि कषाय तथा परिग्रह से रहित है ( शुद्धोपयोगोद्यतम् ) जो शुद्ध ज्ञानदर्शनमई उपयोग से पूर्ण है ( विकलिलं ) जो सर्व कर्म मेल से रहित है ( वाह्यव्यपेक्षा तिमं ) जिसको किसी भी बाहरी पदार्थ की अपेक्षा या गरज नहीं है (तत्) वही ( परमात्मनः) इस उत्कृष्ट आत्मा का (रूपं ) स्वभाव है। (तत्) इसी स्वरूप को ( निःश्रेयस कारणाय) मोक्ष प्राप्ति के लिए. (हृदये ) मन में (सदा ) हमेशा ( कार्य ) ध्याना चाहिए (न अपरां) इसके सिवाय अन्य किसी स्वभावको न ध्याना चाहिए। ( कृत्यं ) करने योग्य काम को ( चिकीर्षवः) पूरा करने की इच्छा करने वाले ( सुधियः) बुद्धिमान लोग (तट्वंसकं ) उद्देश्य के नाश करने वाले कार्यको (क्व अपि) कहीं भी व कभी भी (न कुर्वति) नहीं करते हैं ।
तत्व भावना
भावार्थ -- यहाँ पर आचार्य ने दिखाया है कि जो भव्य जीव अपने आत्माको स्वाधीन करना चाहते हैं उनका यह पवित्र कर्तव्य है कि वह अपने ही आत्मा को परमात्मा के समान जाने, श्रद्धा में लायें तथा अनुभव करें। आत्माका स्वभाव किसी शुभ व अशुभ आरंभ करने का नहीं है। जितने भी काम होते हैं वे इस जगत में मन, वचन कायके हिलने से होते हैं । आत्मा के जब मन वचन काय ही नहीं है तब उनके द्वारा वर्तन या आरंभ किस तरह हो सकते हैं। इस आत्मा में क्रोधादि कषाय की कलुषता भी नहीं है क्योंकि यह चारित्र मोहनीय कर्म का रस है, जैसे नीमका स्वाद कड़वा, ईख का स्वाद मीठा । यह बात्मा सर्व पर पदार्थों के संगसे शून्य है। इसके पास न किसी शरीर का परिग्रह है, न धनधान्य का है न क्षेत्र मकान है न रुपये पैसे का है न स्त्री पुत्रादि का है। यह आत्मा सर्व प्रकार के पौद्गलिक मैल से शून्य है यह अमूर्तीक है । इसके गुण इसके