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तत्त्वभावना
मूल श्लोकानुसार शार्दूलविक्रीडित छन्द परमात्मा है सर्व मैल दूरं नहिं बाह परकी करें। शुद्धपयोगमई कषाय रहितं नारंभ परिग्रह धरै ।। सो ही शिक्षके हेतु निता चित ध्यान नहीं और कुमा बुधजन निज उद्देश्य घातकारक करते नहीं कार्य कुछ ॥७१
उत्थानिका- आगे कहते हैं कि शरीरसे प्रीति करना है सो आत्मा की उन्नति से बाहर रहना है।
यो जागति शरीरकार्यकरणे वृत्ति विधत्ते यतो। हेयादेविचारशन्य हृदयो नात्मक्रियायामसौ ॥ स्वार्थ लब्धमना बिभु चतु ततः शश्यच्छरीरादरम् ।। कार्यस्य प्रतिबंधके न यसते निष्पत्तिकामः सुधीः ।।७२।।
अन्वयार्थ-(यतः) क्योंकि (यः) जो कोई (शरीरकार्यकरणे) शरीरके कामके करनेमें (जागति) जाग रहा है (असो) यह (हेयादेयविचारशून्यहृदयः) त्यागने योग्य व करने योग्य के विचार से शून्य मन वाला होता हुआ (आत्मक्रियायाम् आत्मा के कार्य में (वत्ति न विधत्ते) अपना वर्तन नहीं रखता है। (ततः) इसीलिए (स्वार्थ लब्धुमना) अपने आत्मा के प्रयोजन को जो सिद्ध करना चाहता है उसको (शश्वत्) सदा ही (शरोरादरम्) शरीर का मोह (विमुंचतु) छोड़ देना चाहिए (निष्पत्तिकामः) अपनी इच्छाको पूर्ण करने वाला (सुधीः) बुद्धिमान पुरुष (कार्यस्य) अपने काम के (प्रतिबंधके) रोकने वाले कार्य में (न यतते) उद्यम नहीं करता है ।
भावार्थ-यहां आचार्य कहते हैं कि शारीर और आत्मा दो भिन्न २ पदार्थ हैं। जिसको शरीरका मोह है वह रातदिन शरीर