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भावना
अन्वयार्थ - - ( त्वं ) तू ( आत्मानः ) आत्मा के ( नित्यं ) अविनाशी ( अमलं) निर्मल ( सर्वव्यपाष्युत्तम् ) सर्व संसारिक दुःख जालों से रहित (ज्ञानमयस्वभावं ) ज्ञानमई स्वभाव को ( विबुध्य) जान करके भी ( मूढ़: ) मूर्ख होकर ( इदं ) इस ( मिथ्या ) झूठी (कल्पनम् ) कल्पनाको ( विदधासि ) किया करता है कि मैं (गौरः) गोरा हूँ (रूपधर: ) मैं सुन्दर हूँ (दृढः ) मैं मजबूत हूँ ( परिवृढ़ः ) मैं श्रीमान् हू' (स्थूलः ) मैं मोटा हू' (कुश : ) में दुर्बल हू (कर्कशः ) में कठोर हूँ ( गीर्वाणः ) में देव हूँ (मनुजः ) मैं मनुष्य हूं (पशु) मैं पशु हैं (नरकभूः) में नारको हू (षंढ: ) मैं नपुंसक हूँ ( पुमान् ) मैं पुरुष हूँ ( अंगना ) तथा में स्त्री हूँ ।
भावार्थ -- यहां याचार्यने दिखलाया है कि आत्माका स्वभाव अविनाशी है जब शरीरादि पदार्थ नाशवंत है, आत्मा ज्ञानमई है जब शरीरादि जड़ हैं, आत्मा निर्मल वीतराग है, जब क्रोधादि कर्म विकाररूप जड़ है, आत्मा सर्वं आकूलता व दुःखों से रहित परमानन्दमई है जब कि शरीरादि व क्रोधादि संबंध जीव को आकुलित व दुःखो करनेवाला है। इस तरह बात्मा व अनात्मा का सच्चा स्वरूप जानकर भो मोही जीव मिथ्यादृष्टि होता हुआ मिथ्या श्रद्धान के नशे में अपनेको ताना भेषरूप माना करता है । जो अवस्थाएं कर्मके निमित्तसे हुई हैं उनकोहो अपना माना करता है अपने आत्मा के असली स्वभाव से गिर जाता है । देव मनुष्य, नारको, पशु, स्त्री, पुरुष, नपुंसक, गोरा, सुन्दर बलिस्ट मोटा, दुबला, कठोर आदि सब पुद्गल की अवस्थाएं हैं। जिस घर में आत्मा रहता है उस घर की अवस्थाएं हैं। तो भी मोहो जीव अपने को उस रूप मान लेता है उसे आत्मज्ञान का श्रद्धान नहीं है ।