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अन्वयार्थ - ( कर्मविनिर्मितेः) कर्मों के उदव से रची हुई ( बहुविधेः ) नाना प्रकार की (स्थूलाणुदीर्घादिभिः) मोटी, पतली ऊँची, छोटी आदि ( कार्य ) देहों के द्वारा (स्फुटं संवध्यमानः ) प्रगटपने सम्बन्ध रखता हुआ ( आत्मा ) यह जीव ( कदाचनापि ) कभी भी ( विकृति न याति ) विकारी नहीं हो जाता है अर्थात अपने को नहीं त्यागता है (क) क्या (विग्रहः ) यह शरीर (रक्तारक्तसितासिता दिवसनेः ) लाल पीले, सफेद, काले वस्त्रों से (आवेष्ट्यमानोऽपि ) ढका हुआ भी ( रखतारक्त सितादिगुणिताम् ) लाल, पीले, सफेद, काले रंग पाने को ( आपद्यते ) प्राप्त हो जाता है
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तस्वभावना
भावार्थ- यहां आचार्य यह दिखलाते हैं कि निश्चयतय से अर्थात् वास्तव में यह आत्मा शुद्ध है। इसने अज्ञान से जो कर्म बांधे हैं उन कर्मोंके उदय से इसके साथ कार्मण, औदारिक और तेजस शरीरों का सम्बन्ध है। ये शरीर भी पुद्गल द्रव्य के रचे हुए हैं। इनमें मोह कर्म के उदय से रागद्वेष, मोह भाव होते हैं, तथा नाम कर्म के उदय से शरीर मोटा, पतला, लम्बा व छोटा होता है । शरीर के सम्बन्ध से आत्माको दुबला, मोटा, बलवान, निर्बल व क्रोधी, मानी, लोभी आदि के नाम से पुकारते हैं । असल में देखो तो आत्मा अपने स्वभावसे असंख्यात प्रदेशी ज्ञान दर्शन सुख वीर्यमय अविनाशी हैं। आत्मा पुद्गल के संबंध होने पर भी आत्मा ही रहता है कभी भी पुद्गलमई नहीं हो जाता है। यहां दृष्टांत देते हैं कि जैसे शरीर पर लाल, पीले, नीले, सफेद कैसे भी रंग के कपड़े पहनो वे कपड़े शरीर के ऊपर ही ऊपर हैं। शरीर लाल, पीला, काला, सफेद नहीं होता है ।इसी तरह कर्मों के नाना प्रकार के संयोग होने पर भी आत्मा